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श्रोता ऊँचा और वक्ता नीचा हो जाता है। इसलिए वक्ता को श्रोता से कभी भी मान प्रतिष्ठा, या धन की भावना नही करनी चाहिए । मान-प्रतिष्ठा, या धन की भावना करने वाला भिखारी भगवान की जल से पूजा यथार्थतया नही कर सकता है । वादल हमे यह शिक्षा देता है कि मान प्रतिष्ठा और घन की इच्छा छोडने वाला ही भगवान की जल से पूजा कर सकता है ।
प्रश्न २६ -- क्या मोह रागादि को निकाले बिना, जल से पूजा नही हो सकती है ?
उत्तर - जैसे – समुद्र अपने मे मुद को नही रखता किन्तु बाहर निकाल देता है, उसी प्रकार ज्ञान समुद्ररूपी आत्मा की दृष्टि जिस जीव को हुई है, वह ही अपने में अचेतन मोह-रागादि भावो को नहीं रखता, किन्तु बाहर निकाल देता है, तभी भगवान की जल से यथार्थ पूजा की, ऐसा कहा जा सकता है ।
प्रश्न २७ - ' आपदर्थे धनं रक्षेत् भाग्यवन्यः क्व चापदः । कदापि कूपितो देवः, संचितोऽपि विनश्यति । इस इलोक का सार क्या है ?
उत्तर - एक राजा था । उसका यह नियम था कि जो मेरे पाम नया श्लोक बनाकर सबसे पहले आवे और उसका श्लोक उत्तम हो तो उसे सवा लाख रुपया इनाम दिया करूँगा।' इस प्रकार प्रतिदिन किसी न किसी को सवा लाख रुपया राजा से नया श्लोक बनाने मे मिल जाता था । राजा के महल के थोडी दूर पर एक गरीब ब्राह्मण अपनी स्त्री सहित रहता था। एक दिन ब्राह्मण की स्त्री को पता लगा, कि राजा नया श्लोक बनाने वाले को सवा लाख रुपया प्रतिदिन इनाम देता है। उसने अपने पति से कहा 'आप इतने दुखी होते हैं, खाने के लिए भी रोटी के लाले पड़े रहते हैं । आप भी उत्तम नया श्लोक बनाकर सबसे पहले राजा के पास जाओ, तो सवा लाख रुपया मिले, जिससे यह गरीबी दूर हो। तब उस ब्राह्मण ने अपनी बुद्धि अनुसार एक कागज पर नया श्लोक लिखा और राजा