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( १२७ ) है जीव नाना, कर्म नाना, लब्धि नाना विधि कही, अतएव ही निज पर समय सह वाद परिहर्तव्य है ॥१५६।। निधि पा 'मनुज तत्फल वतन मे गुप्त रह ज्यो भोगता त्यों छोड़ परजन-संग ज्ञानी ज्ञान निधि को भोगता ॥१५७।।
अर्थ-यदि किया जा सके तो अहो । ध्यानमय प्रतिक्रमणादिकर यदि तू शक्ति विहीन हो तो तब तक श्रद्धान ही कर्तव्य है ।।१५४।। नाना प्रकार के जीव है, नाना प्रकार का कर्म हैं। नाना प्रकार की लब्धि है। इसलिए स्वसमयो तथा पर समयो के साथ (स्वर्मियो तथा परर्मियो के साथ) वचन विवाद दर्जन योग्य है ॥१५६।। जैसे कोई एक (दरिद्र मनुष्य) निधि को पाकर अपने वतन मे (गुप्त रूप से) रहकर उसके फल को भोगता है, उसी प्रकार ज्ञानी पर जनो समूह को छोड कर ज्ञान निधि को भोगता है ।।१५७।।
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प्रश्न-त्याग जैनधर्म है कि नहीं?
उत्तर--सम्यग्दर्शनपूर्वक जितने अश मे वीतराग भाव प्रकट हो, उतने अश मे कषाय का जो त्याग होता है, उसे धर्म कहते है। सम्यग्दर्शनादि अस्तिरूप धर्म है
और उसी समय मिथ्यात्व और कषाय का त्याग, वह नास्तिरूप धर्म है। किसी भी दशा में सम्यक्त्व रहित त्याग से धर्म नही होता, यदि मन्दकषाय हो तो पुण्य होता है।
आत्मधर्म : अप्रैल १९८२ पृष्ठ २५
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