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________________ ( १२५ ) बघता है। (३) कलश १८६ मे 'अनपराध मुनि न बध्येत' (अनपराध ) कर्म के उदय के भाव को आत्मा का जान कर नही अनुभवता है ऐसा है जो (मुनि ) पर द्रव्य से विरक्त सम्यग्दृष्टि जीव (न बध्येत) ज्ञानावरणादि कर्म पिण्ड के द्वारा नही वाँधा जाता है । (४) कलश १६० मे 'अत. मुनि परम शुद्धता व्रजति च अचिरात मुच्यते' (अत ) इस कारण से (मुनिः) सम्यग्दृष्टि जीव (परम शुद्धता व्रजति) शुद्धोपयोग परिणति रूपी परिणमता है (च) ऐसा होता हुआ (अचिरात-मूच्यते) उसी काल कर्मबन्ध से मुक्त होता है। इन चार कलशो मे सम्यग्दृष्टि को 'मुनि' कहा है अत चौथे गुणस्थान से लेकर १२ वे तक राव मुनि कहलाते है। परन्तु ७ वे से १२ वे गुणस्थान तक वाले उत्तम मुनि पाँचवे छठे गुणस्थानी मध्यम मुनि और चौथे गुणस्थानी असयत सम्यग्दृष्टि जघन्य मुनि कहलाते - प्रश्न ३४-मुनि' अप्रमत्त और प्रमत्तदशा से गिर जावे, तो क्या होता है, जरा दृष्टान्त देकर समझाइये? उत्तर-जैसे-सरकस मे दो झूला होते है। उन पर एक लडकी कभी उस झूले पर और कभी उस झूले पर तेजी से आती-जाती हैं। उसके नीचे सरक्स वाले जाली लगाते है ताकि यदि गिर जावे तो चोट ना लगे । प्रथम तो वह गिरती ही नही है, यदि गिर जावे तो ताल ठोककर फिर तत्काल झूले पर चढ जाती है और यदि वह जाली पर पड़ी रहे तो उसे सरकस से बाहर कर देते है, उसी प्रकार भाव लिंगी मुनीश्वर छठे सातवे गुणस्थान मे झूला झूलते हैं। अव्वल तो गिरते नही है और अपने परिपूर्ण स्वभाव का आश्रय बढाकर सिद्ध दशा को प्राप्त कर लेते हैं। और यदि गिर जावे तो उग्र पुरुषार्थ बढाकर फिर चढ जाते है। यदि गिर जावे तो कोई पाँचवे, कोई चौथे गुणस्थान मे और कोई मिथ्यादृष्टि तक हो जाता है। प्रश्न ३५-मुनि गिर जावे, तो बहुत से मुनि सर्वार्थसिद्धि में
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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