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त्याग करने पर ही अन्तरग त्याग सम्भव है । इसलिए जो श्रद्धानी जीव है, उन्हे किसी प्रकार से भी कुगुरुओ की सेवा-सुश्रुषा आदि करना योग्य नही है । [मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ १८७] प्रश्न ३१ - जिस प्रकार राजादिक को करता है, उसी प्रकार इनको भी करें, तो क्या नुकसान है ?
उत्तर - राजादिक धर्म पद्धति मे नही है गुरु का सेवन धर्म पद्धति मे है । राजादिक का सेवन लोभादिक से होता है, वहाँ चारित्र मोहनीय का ही उदय सम्भव है, परन्तु गुरु के स्थान पर कुगुरु का सेवन किया, वहाँ तत्व श्रद्धान के निमित्त कारण गुरु थे, उनसे यह प्रतिकुल हुआ । सो लज्जादिक से जिसने निमित्त कारण मे विपरीतता उत्पन्न की, उसके उपादान कार्यभूत तत्त्वश्रद्धान मे दृढता कैसे - सम्भव है ? इसलिए कुगुरु के सेवन मे दर्शन मोह का उदय है । इसलिए पात्र जीवो को मुनि का लक्षण जानकर ही उनको मानना चाहिए |
[ मोक्षमार्ग प्रकाशन पृष्ठ १८७] प्रश्न ३२ - ' मुनि' शब्द किस-किस को लागू पड़ता है ? उत्तर- 'मुनि' शब्द चौथे गुणस्थान से लेकर १२ वे गुणस्थान तक लागू होता है अर्थात् ४ से १२ तक सर्व 'मुनि' नाम से सम्बोधन "किये जा सकते है |
प्रश्न ३३ - ' मुनि' का अर्थ असंयत सम्यग्दृष्टि आदि आपने कहाँ से कर दिया ?
उत्तर - अरे भाई ! (१) श्री समयसार कलश टीका मे कलश १०४ मे 'एते तत्र निरताः अमृत विदन्ति' ( एते) विद्यमान जो - सम्यग्दृष्टि मुनीश्वर (तत्र) शुद्ध स्वरूप के अनुभव मे ( निरता ) मग्न है वे ( परम अमृत) सर्वोत्कृष्ट अतीन्द्रिय सुख को ( विन्दति ) - आस्वादते है । (२) कलश १५२ मे 'तत् मुनि कर्मणा नो बध्यते' (तत्) तिस कारण से ( मुनि ) शुद्ध स्वरूप अनुभव विराजमान ■ सम्यग्दृष्टि जीव (कर्मणा ) ज्ञानावरणादि कर्म से (नो बध्यते) नही