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( १२३ ) मूलगुण कहे है, इसलिए मद्य, मांस, मधु, पांच उदम्बरादि फलो का भक्षण श्रावको के नही। इसलिए किसी प्रकार से श्रावकपना तो सम्भावित भी है, परन्तु मुनि के अठाईस मूलगुण है सो वेपियो के दिखाई ही नही देते। इसलिए मुनिपना किसी प्रकार सम्भव नही है। (मोक्ष मार्ग प्रकाशक पृष्ठ १८६)।
प्रश्न २६-जिनलिंगी होकर अन्यथा प्रवर्ते, तो क्या होगा?
उत्तर-आदिनाथ जी के साथ चार हजार राजा दीक्षा लेकर पुन भ्रष्ट हुए, तव उनसे देव कहने लगे--'जिनलिंगी होकर अन्यथा प्रवतोगे तो हम दण्ड देंगे । जिनलिंग छोडकर जो तुम्हारी इच्छा हो, सो तुम जानो" इसलिए जिन लगी कहलाकर अन्यथा प्रवर्ते, तो वे दण्ड योग्य है, वन्दनादि योग्य कैसे होगे ? अब अधिक क्या कहे, जिन मत मे कुवेप धारण करते हैं वे महापाप करते है, अन्य जीव जो उनकी सेवा-सुश्रुषा आदि करते हैं, वे भी पापी होते है, क्योकि पद्यपुराण मे लिखा है कि 'श्रेष्ठी धर्मात्मा चारण मुनियो को भ्रम से भ्रष्ट जानकर आहार नहीं दिया तव जो प्रत्यक्ष भ्रष्ट है उन्हे दानादि देना कैसे सम्भव है ? अर्थात् कभी भी नही ।
मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ १८६] प्रश्न ३०-हमारे अन्तरंग में श्रद्धान तो सत्य है परन्तु बाह्य लज्जादि से शिष्टाचार करते हैं, सो फल तो अन्तरग का होगा?
उत्तर-दर्शन पाहुड श्लोक १३ मे लज्जादि से वन्दनादिक का निषेध बतलाया है । कोई जवरदस्ती मस्तक झुकाकर हाथ जुडवाये तो यह सम्भव है कि हमारा अन्तरग नहीं था, परन्तु आप ही मानादिक से नमस्कारादि करे, वहाँ अन्तरग कैसे ना कहे ? जैसेकोई अन्तरग मे तो मॉस को बुरा जाने, परन्तु राजादिक को भला मनवाने को मांस भक्षण करे, तो उसे व्रती कैसे माने ? उसी प्रकार अन्तरग मे कुगुरु सेवन को बुरा जाने परन्तु उनको व लोगो को भला मनवाने के लिए सेवन करे, उसे श्रद्धानी कैसे कहे ? इसलिए बाह्य