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________________ ( १२१ ) अर्थ-मुनिपद है वह यथाजातरूप सदृश है जैसा जन्म होते हुए था वैसा नग्न है । सो वह मुनि अर्थ यानी धन-वस्त्रादिक वस्तुओ मे तिल के तुष मात्र भी ग्रहण नहीं करता । यदि कदाचित् अल्प व बहुत वस्तु ग्रहण करे तो उससे निगोद जाता है । प्रश्न २३-सूत्रपाहुड़ १८ का भावार्थ क्या है ? । उत्तर-गृहस्थपने मे बहुत परिग्रह रखकर कुछ प्रमाण करे, तो भी स्वर्ग-मोक्ष का अधिकारी होता है और मुनिपने से किचित परिग्रह अगीकार करने पर भी निगोद गामो होता है। इसलिए ऊँचा नाम रखाकर नीची प्रवृत्ति युक्त नही है। देखो, हुण्डावसर्पिणी काल मे यह कलिकाल चल रहा है । इसके दोप से जिनमत मे मुनि का स्वरूप तो ऐसा है जहाँ वाह्याभ्यन्तर परिग्रह का लगाव नही है । केवल अपने आत्मा का आपरूप अनुभव करते हुए, शुभाशुभ भावो से उदासीन रहते हैं और अब विषय कषायासक्त जीव मुनिपद धारण करते हैं; वहाँ सर्व सावध के त्यागी होकर पच महाव्रतादि अगीकार करते हैं; भोजनादि मे लोलुपी रहते है, अपनी पद्धति बढाने के उद्यमी होते है व कितने ही धनादि भी रखते है, हिंसादिक करते है व नाना आरम्भ करते हैं। परन्तु अल्प परिग्रह करने का फल निगोद कहा हैं, तव ऐसे पापो का फल तो अनन्त ससार होगा ही होगा। [मोक्ष मार्ग प्रकाशक पृष्ठ १७६] प्रश्न २४–जो मुनि ऐसा करते हैं । क्या उन्हे मुनि नहीं मानना चाहिए? उत्तर-लोगो की अज्ञानता देखो, कोई एक छोटी सी प्रतिज्ञा भग करे, उसे तो पापी कहते हैं और ऐसी बडी प्रतिज्ञा भग करते देखकर भी उन्हे गुरु मानते हैं। उनका मुनिवत् सन्मानादि करते हैं। सो शास्त्र मे कृत, कारित, अनुमोदना का एक फल कहा है। इसलिए वे सब निगोद के पास हैं। (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ १७६) प्रश्न २५-मुनिपद लेने का काम क्या है ?
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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