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क्षुल्लक का समागम देखने मे नही आता है |
प्रश्न २१ - पंचमकाल मे भावलिंगी मुनि आदि का समागम देखने में नहीं आता है । ऐसा कहीं रत्नकरण्ड श्रावकाचार जो श्रावको का ग्रन्थ है, ऐसा कहीं लिखा है ?
उत्तर - रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक ११७ के अर्थ मे लिखा है कि " और इस पचमकाल मे वीतरागी भावलिंगी साधु ही कोई विरला देशान्तर मे तिष्ठे है तिनका पावना होय नाही । पात्र का लाभ होना चतुर्थ काल मे ही बडे भाग्य तें होय था । परन्तु इस क्षेत्र मे पात्र तो बहुत थे । अब इस दुखम काल मे यथावत् धर्म के धारक पात्र कही देखने मे ही नाही आवे । धर्म रहित अज्ञानी लोभी वहुत विचर है सो अपात्र है । इस काल मे धर्म पाय करिकै गृहस्य जिन वर्म के धारक श्रद्धानी कोई कही-कही पाइए है । जे वीतराग धर्म कूं श्रवण करि कुधर्म की आराधना दूर ही ते त्याग करि, नित्य ही जहिसा धर्म के धरने वाले जिन वचनामृत पान करने वाले शीलवान सन्तोषी तपस्वी ही पात्र है । अन्य भेषधारी बहुत विचर है । जिनमे मुनि श्रावक धर्म का सत्य सम्यग्दर्शनादिक का ज्ञान ही नाही, ते कैसे पात्र पना पावे ? मिथ्यादर्शन के भावकरि आत्मज्ञान रहित लोभी भये, जगत मे धनादिकनिका मिष्ट आहार दान का इच्छुक भये, बहुत विचर है ते अपात्र है । ताते पात्र दान होना अति दुर्लभ है। यहाँ ऐसा विशेष जानना, जो कलिकाल मे भावलिगी मुनीश्वर तथा अर्जिका क्षुल्लक का समागम तो है ही नाही ।"
प्रश्न २२ - पीछी कमण्डल के अलावा तिलतुष मात्र भी परिग्रह रखे तो वह निगोद जाता है। ऐसा कहीं पंचमकाल के आचार्य कुन्दकुन्द भगवान ने कहा है ?
उत्तर - सूत्र पाहुड श्लोक १८ मे कहाँ है कि
"जय जाय रुव सरियो तिलतुसमित्तण गहदि अत्थेसु । जह लेह अप्प - बहुयं, तोत्तो पुण जाइ णिग्गोयं ॥ १७॥
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