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पीछी - कमण्डल के अलावा उनके पास तिलतुष मात्र भी परिग्रह नहीं होता । ऐसे जैन मुनि को तीन चौकडी कषाय के अभाव रूप शुद्धि के -साथ राग हेय बुद्धि से होता है करते नही है |
प्रश्न १५ – क्या भावलिंगी मुनि को छठे गुणस्थान मे उद्दिष्ट आहारादि का विकल्प भी नहीं आता, यह बात जरा दृष्टान्त देकर समझाइए ?
उत्तर- (१) रामचन्द्र, लक्ष्मण, सीता ने जगल मे अपने हाथ से वने मिट्टी के बर्तनो मे आहार बनाया। दूसरी तरफ मुनि आहार के निमित्त े नियम लेकर चलते हैं कि राजकुमार हो, जगल मे हो, अपने हाथ से मिट्टी के बर्तन बनाए हो और स्वयं आहार बनाया हो तो हम आहार लेगे । आहार बनाने के बाद रामचन्द्र, लक्ष्मण, सोता आहार निमित्त विचारते हैं। आकाश मार्ग से मुनि को आते देखकर हे स्वामी तिष्ठो-तिष्ठो । हमने मिट्टी के बर्तनो मे स्वयं आहार बनाया है । देखो | ऐसा सहज ही स्वत निमित्त नैमित्तिक सम्वन्ध होता है । (२) एक मुनि दो महीनो के उपवास के बाद आहार के निमित्त नियम ले के निकले कि केले का साग हो, इसमे नमक, मिर्चादि ना हो, तो हम आहार ले । दूसरी तरफ एक गरीब श्राविका एक बाग में गई, वहाँ के माली ने कहा बुढिया - ले यह केले का गुच्छा है । बुढिया ने घर पर आकर केले का साग बनाया । बनने के बाद सामने मे मुनिराज आते देखे, तो पडगाने को खडी हो गई' हे स्वामी । तिष्ठो-तिष्ठो, मैंने केले का साग बनाया है ना नमक है, ना मिर्च है देखो आहार हो गया । श्रावक अपने निमित्त शुद्ध आहारा बनावे, तव मुनियों के आने का योग हो, तब सहज रूप से स्वयं स्वतः निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बन जाता है । वनाना नही पडता है ।
मुनि आहार के निमित्त पधारे और उन्हे यह सशय हो जावे कि इस श्रावक ने हमारे लिए आहार बनाया है तो वह आहार नही लेंगे वापस चले जावेगे । क्योकि मुनि के उद्दिष्ट आहार का त्याग है ।