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लूखा है । जीभ अपने लूखे स्वभाव के कारण चिकनाई को तोड़े बिना नही रहती है, उसी प्रकार जो जीव अपने त्रिकाली ज्ञायक भगवान का आश्रय लेता है उसको रागद्वेष उत्पन्न ही नही होता । तब व्यवहार से कहा जाता है कि इसने रागद्वेष को छोडा है। मुनि को अपना आश्रय ही वर्तता है इसलिए वीतरागी मुनि नग्न ही होता है ।
प्रश्न १३ - क्या मुनि को नग्न देखने से विकार उत्पन्न होता है ? उत्तर - बिल्कुल नही । जैसे-छोटा बच्चा है, नग्न है । यदि वह राजमहल मे चला जावे, तो रानियाँ उसे प्यार करती है और बच्चे को नग्न देखने से किसी को भी विकार उत्पन्न नही होता है । यदि जवान विषयासक्त महल मे चला जावे, तो उसका सिर काट दिया जाता है; उसी प्रकार मुनि को स्वय तो विकार उत्पन्न नही होता इतना ही नही, बल्कि वीतरागी मुनि को देखकर किसी को भी विकार उत्पन्न नही होता है क्योकि मुनि की नग्नता निर्दोषता का सूचक है, इसलिए वीतरागी मुनि नग्न ही होता है ।
प्रश्न १४ - वीतरागी साधु को भूमिकानुसार कैसा कैसा राग हेय बुद्धि से होता है, स्पष्ट खोलकर समझाइए ?
उत्तर - अनन्तानुबधी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान सम्बन्धी क्रोधादि के अभाव रूप शुद्धि तो निरन्तर वर्तती है, जो शुद्धि है वह वीतराग रूप है, उसे सकलचारित्र कहते है । छठे गुणस्थान मे आने पर हेय बुद्धि से २८ मूलगुणो का पालन, बाईस परिषहो का सहन, बारह प्रकार के तप, कदाचित अध्ययनादिक बाह्य धर्म क्रियाओ मे प्रवर्तते हैं कदाचित आहार-विहारादि क्रियाये होती हैं। उनकी दृष्टि तो एक मात्र अपने त्रिकाली भगवान पर होती है अप्रमत्तदशा और प्रमत्तदशा पर भी उनकी दृष्टि नही होती है, वन खण्डादि मे वास करते हैं, उद्दिष्ट आहारादि का ग्रहण उनके नही होता है । मुनि पद है, वह यथाजातरूप सदृश है । जैसा जन्म होते हुए था वैसा नग्न है ।