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________________ ( ११२ / आत्मिक सुख को सुख जानकर, देहादिक मे ममत्व रहित आत्म कार्य साधे है । प्रश्न ३ - आचार्यकल्प पं० टोडरमलजी ने सामान्यरूप से साधु का स्वरूप क्या बताया है ? उत्तर - जो विरागी होकर समस्त परिग्रह का त्याग करके, शुद्धोपयोग रूप मुनि धर्म अगीकार करके अन्तरंग मे तो शुद्धोपयोग के द्वारा अपने को आपरूप अनुभव करते है, अपने उपयोग को बहुत नही भ्रमाते हैं । जिनके कदाचित् मन्दराग के उदय मे शुभोपयोग भी होता है, परन्तु उसे भी हेय मानते हैं । तीव्र कषाय का अभाव होने से अशुभोगयोग का तो अस्तित्व ही नही रहता है, ऐसे मुनिराज ही सच्चे साधु है । [ मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३] प्रश्न ४ --मुनि किसका भोक्ता होता है ? उत्तर -- अतीन्द्रिय आनन्द का ही मुनि भोक्ता होता है । प्रश्न ५ – मुनि नग्न ही क्यों होना चाहिए ? उत्तर - अनादिकाल से आज तक कोई भी संसारी जीव स्पर्शन इन्द्रिय के बिना रहा नही । विचारिये, एक तरफ स्पर्शन इन्द्रिय है, दूसरी तरफ अतीन्द्रिय आत्मा है । स्पर्शन इन्द्रिय को जीते बिना अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति नही हो सकती, अत स्पर्शन इन्द्रिय रहित अखण्ड आत्मा की प्राप्ति के लिए अखण्ड स्पर्शन इन्द्रिय को जीतना चाहिए। इसको जीते बिना मुनि नही हा सकता, इसलिए मुनि नग्न ही होना चाहिए अर्थात् वाह्य मे कपडे का घागा भी मुनि को नही होना चाहिए । प्रश्न ६ - अखण्ड आत्मा की प्राप्ति वाले मुनि को नग्न क्यों होना चाहिए ? उत्तर - रसना, घाण, चक्षु, और कर्ण ये चार इन्द्रियाँ खण्ड-खण्ड रूप है । देखो ! सुनना हो तो कान से होता है । देखना हो तो आँख से होता है, सूंघना हो तो नाक से होता है और चखना हो तो रसना से होता है । इसलिये ये चार इन्द्रियाँ खण्ड-खण्ड रूप है और
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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