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आठवाँ प्रकरण मुनि का स्वरूप
प्रश्न १ - मुनि का स्वरूप नियमसार में क्या बताया है ? उत्तर - निर्ग्रन्थ हैं, निर्मोह है, व्यापार से प्रतिमुक्त हैं ।
हैं साधु, चउ आराधना मे, जो सदा अनुरक्त है | गा० ७५॥ अर्थ- समस्त व्यापार से रहित, ज्ञान-दर्शन- चारित्र तप रूप चार आराधना मे सदा रक्त, निग्रन्थ और निर्मोह, ऐसे साध होते हैं । प्रश्न २ – रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक १० मे मुनि का स्वरूप क्या बताया है ?
उत्तर
विषयाशावशातीतो निरारम्भो ऽपरिग्रहः । ज्ञान ध्यान तपोरक्त स्तपस्वी स प्रशस्यते ॥१०॥
अर्थ - पाँच इन्द्रियो के विषयो की आशा से रहित आरम्भ परिग्रह रहित, ज्ञान-ध्यान तप मे लीन वह साधु प्रशसा योग्य हैं । कैसे है दिगम्बर यति ? इसी ग्रन्थ के १११ श्लोक मे लिखा है सम्यर दर्शन ज्ञान चारित्र इत्यादि गुणनिका निधान है। और कैसे हैं ? नही है अन्तरंग - बहिरंग परिग्रह जिनके ऐसे मठ - मकान - उपासराआश्रमादि रहित एकाकी अथवा गुरुजनो की चरणो की लार कभी वन में, कभी पर्वत की निर्जन गुफा मे, कभी घोर वन में, कभी नदी किनारे मे नियम रहित है नित्य बिहार जिनका, असयमी गृहस्थो के सगम रहित, आत्मा की विशुद्धता जो परम वीतराग का साधन करता हुआ और लौकिक जनकृत पूजा स्तवन- प्रशसादि को नही चाहता, परलोक मे देवलोकादिक के भोगो को तथा इन्द्र, अहमिन्द्र ऐश्वर्य को रागरूप अगारे तप्त महान आताप उपजावने वाली, तृष्णा के बधाने वाले जानकर, परम अतीन्द्रिय आकुलता रहित