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उत्तर - अपनी आत्मा का अनुभव हुए बिना चाहे वह द्रव्यलिंगी मुनि हो, किसी को भी निश्चयस्तुति नही हो सकती है क्योकि स्तुति का उच्चारण भाषा वर्गणा का कार्य है हाथ जोडना, सामग्री चढाना आदि सब जड का कार्य है इसमे स्तुति की बात ही नही है । परन्तु जो जीव यह मानता है कि मैं पाठ बोलता हू, सामग्री चढाता हूँ, यह पर मे अपने पने की बुद्धि मिथ्यात्व भाव है । उस समय जितनी मन्द कषाय है, वह पापानुवन्धी पुण्य है; जैसे बहू का गाना गाने से बताशा मिलता है, वहू नही मिलती है, उसी प्रकार पुण्य से सयोग मिलता है, मोक्षमार्ग और मोक्ष नही मिलता है । अज्ञानी पुण्य के सयोग मे पागल बना रहता है वह परम्परा निगोद का कारण है । वास्तव मे अज्ञानी की स्तुति पूजा आदि सब राग की स्तुति - पूजा है, मोह भजन है जो ससार के लिए कार्यकारी है ।
प्रश्न ६ - अज्ञानी की स्तुति-पूजा आदि मोह भजन है, संसार के लिए कार्यकारी है मोक्ष और मोक्षमार्ग के लिए कार्य कारी नहीं है ऐसा कहाँ लिखा है ?
उत्तर
'वो धर्म को श्रद्ध' प्रतीत, रूचि स्पर्शन करे ।
वो भोग हेतु धर्म को, नहि कर्म के क्षेय के हेतु को ॥ २७५ ॥ टीका - अभव्य जीव नित्य कर्मफल चेतनारूप वस्तु की श्रद्धा करता है किन्तु नित्य ज्ञान चेतनामात्र वस्तु की श्रद्धा नही करता, क्योकि वह सदा ( स्व - परके) भेद विज्ञान के अयोग्य है । इसलिए वह कर्मों से छूटने के निमित्तरूप, ज्ञान मात्र भूतार्थ ( सत्यार्थ ) धर्म की श्रद्धा नही करता ( किन्त ) भोग के निमित्तरूप, शुभकर्म मात्र अभूतार्थं धर्म की ही श्रद्धा करता है इसलिए वह अभूतार्थ धर्म की ही श्रद्धा, प्रतीत, रुचि और स्पर्शन से ऊपर के ग्रैवेयक तक के भोगमात्र को प्राप्त होता है किन्तु कभी भी कर्मों से मुक्त नही होता । इसलिए उसे भूतार्थ धर्म के श्रद्धान का अभाव होने से ( यथार्थ )