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(१०२ ) उत्तर-जिसने शुद्ध द्रव्य के भाव मे बुद्धि को लगाया है और जो तत्व का अनुभव करता है उस पुरुष को एक द्रव्य के भीतर कोई भी अन्य द्रव्य रहता हुआ कदापि भासित नहीं होता। ज्ञान ज्ञेय को जानता है, सो तो यह ज्ञान से शुद्ध स्वभाव का उदय है। जबकि ऐसा है तब फिर लोग ज्ञान को अन्य ज्ञेय के साथ स्पर्श होने की मान्यता से आकुलबुद्धि वाले होते हुए शुद्ध स्वरूप से क्यो च्युत होते हैं ? अर्थात् आत्मा ने द्रव्यकर्म-नोकर्म-भावकर्म को छुआ ही नही तव मैं पर का कर्ता-भोक्ता ह-यह बुद्धि कहाँ से आयी ? अज्ञान से आयी है । इसलिए हे भव्य । तेरा तेरे से बाहर कुछ नही है। जरा अपने अन्दर देख, अपूर्व शान्ति का वेदन होगा। तात्पर्य यह है कि जीव समस्त ज्ञेय को जानता है तथापि समस्य ज्ञेय से भिन्न है ऐसा चौथे गुणस्थान से लेकर सिद्धदशा तक सब जानते हैं।
प्रश्न २५-ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध को समझने के लिए किस शास्त्र की, कौन-कौन सी गाथायें-टीकायें देखना चाहिए?
उत्तर-(१) समयसार गा० ३५६ से ३६५ तक तथा गाथा ३७३ से ३८२ तक टीका सहित और कलश २१४ से २२२ तक देखना चाहिए। (२) प्रवचनसार गाथा १७३ से १७४ तक टीका सहित देखना चाहिए।
प्रश्न २६-- य ज्ञायक के दोहे सुनाओ?
उत्तरसकल वस्तु जग मे असहाई। वस्तु वस्तु सो मिले न काई । जीव वस्तु जाने जग जेती। सोऊ भिन्न रहे सब सेती ।।
सुद्ध दरब अनुभव करे, शुद्ध दृष्टि घट मांहि । ताते समकित वत नर, सहज उच्छेदक नाहि ॥ सकल ज्ञय-ज्ञायक तदपि निजानन्द रसलीन । सो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अरि रज रहस विहीन ॥