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________________ ( ६७ ) अनेक उपचार कथन है, उनका आशय पकड कर परमार्थ अर्थ समझना यदि शब्दो को पकडा जावेगा, शास्त्र का आशय समझ मे नही आवेगा । (२) एक साहूकार ने अपने पुत्र को परदेश भेजा । कितने ही दिन के बाद बेटे की बहू वोली, "मैं तो विधवा हो गई" तव मेठ ने अपने पुत्र के नाम पत्र भेजा उसमे ऐसा लिखा कि "बेटा तेरी बहू तो विधवा हो गई" तब वह सेठ का पुत्र उस पत्र का पढकर शोक करने लगा। किसी ने पूछा - "तुम शोक क्यों करते हो ?" उसने कहा "हमारी स्त्री विधवा हो गयी । यह सुनकर वह बोला तुम तो प्रत्यक्ष जीवित मौजूद हो फिर तुम्हारी स्त्री विधवा कैसे हो गयी ? तब वह सेठ का पुत्र वोला 'तुमने कहा वह तो सच है परन्तु मेरे दादा जी का लिखा हुआ पत्र आया है उसे झूठा कैसे मान् ?" यह दृष्टान्त ऐसा सूचित करता है कि अज्ञानी शास्त्र का आशय जानते नहो और आशय समझे बिना ही कहते हैं कि "शास्त्र मे कर्म के उदय से निमित्त से लाभ हानि होने है ऐसा लिखा है वह क्या झूठ है ? ज्ञानी कहते हैं "भाई | शास्त्रकार का आशय तो यह है कि - आत्मा स्वय मौजूद है और उसकी परिणति कर्म के उदय से या निमित्त से होती है ऐसा मानना यह तो मेरी मौजूदगी मे तेरी स्त्री विधवा हो और "मेरी स्त्री विधवा हो गई" ऐसा कहकर जोर-जोर से रोने जैसा है। शास्त्र के वे कथन तो उपचार मात्र कर्म को अवस्था का तथा निमित्त का ज्ञान कराने के लिए है । (३) व्यवहार अभूतार्थ है सत्य स्वरूप का निरूपण नही करता किसी अपेक्षा उपचार से अन्यथा निरूपण करता है । तथा शुद्धनय जो निश्चय है वह भूतार्थ है जैसा वस्तु का स्वरूप है वैसा निरूपण करता है । इसलिए निश्चयनय से जो निरूपण किया हो उसे सत्यार्थं मानकर उसका श्रद्धान अगीकार करना और व्यवहार नय से जो निरूपण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोडना -
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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