SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (६४) तर तक सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति नही होगी। अत "ज्ञायक ज्ञायक ही है"-~-यह निश्चय है। प्रश्न ४-समयमार गाथा ३५६ से ३६५ तक दश गाथाओ की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य जी ने छह बार पया बात क्तलाई है ? उत्तर-"एक द्रव्य का अन्य द्रव्यरूप मे सक्रमण होने का निपेव किया है।" इस बात को टीका मे छह वार बताया है। प्रश्न ५-समयसार फलश २१४ का सार क्या है ? उत्तर-कोई आशका करता है कि जैन सिद्धान्त में भी ऐसा कहा है कि जीव ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्म को करता है--भोगता है। उसका समाधान किया है कि झूठे व्यवहार से कहने को है। द्रव्य के स्वरूप का विचार करने पर पर द्रव्य का कर्ता जीव नहीं है इससे यह समझना चाहिए पर द्रव्य रूप ज्ञय पदार्थ अपने भाव से परिणमित होते हैं और ज्ञायक आत्मा अपने भावल्प परिणमन करता है। वे एक दूसरे का परस्पर कुछ नहीं कर सकते। इसलिए यह व्यवहार से ही कहा जाता है कि "ज्ञायक पर द्रव्यो को जानता है" निश्चया से ज्ञायक तो बस ज्ञायक ही है। प्रश्न ६-इस विषय मे प्रवचनसार गा० १७३ से १७४ तक में क्या बताया है ? उत्तर-उन दोनो गाथाओ मे प्रश्न और उत्तर हैं। प्रश्न ७-आत्मा अनूतिक होने पर भी वह मूर्तिक कर्म-पुद्गलो के साथ कैसे बंधता है ? उत्तर-आत्मा अमूर्तिक होने पर भी वह मूर्तिक पदार्थों को कैसे जानता है ? जैसे वह मूतिक पदार्थों को जानता है, उसी प्रकार मूर्तिक कर्म पुद्गलो के साथ बधता है। प्रश्न ८-शास्त्रो में आता है कि "वास्तव मे अरूपी आत्मा का रूपी पदार्थो के साथ कोई सम्बन्ध न होने पर भी अरूपी आत्मा का
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy