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________________ अनुसार ज्ञय जाना जाता है । इस विषय में समयसार गाथा ३७३ से ३८२ तक २२२ कलश का क्या रहस्य है। उत्तर-जैसे दीपक का स्वभाव घट पटादि को प्रकाशित करने का है। उसी प्रकार ज्ञान का स्वभाव ज्ञेय को जानने का है ऐसा 'वस्तु स्वभाव है। (२) ज्ञेय को जानने मात्र मे ज्ञान मे विकार नहीं होता । ज्ञेयो को जानकर उन्हे अच्छा-बुरा मानकर, आत्मा रागीद्वेषी-विकारी होता है जो कि अज्ञान है । (३) इसलिए आचार्य देव ने सोच किया हैं कि-वस्तु का स्वभाव तो ऐसा है, फिर भी यह आत्मा अज्ञानी होकर राग-द्वेष रूप क्यो परिणामित होता है ? अपनी स्वभाविक उदासीन अवस्यारूप क्यो नही रहता? (४) इस प्रकार आचार्यदेव ने जो सोच किया है सो उचित ही है। क्योकि ज्ञानियों को जब तक शुभ राग है तब तक प्राणियो का अज्ञान से दुखी देखी कर करुणा उत्पन्न होती है और उससे सोच भी होता है । प्रश्न ३-श्री समयसार गा० ३५६ से ३६५ तक का सार क्या उत्तर-(१) जिसे सम्यग्ज्ञान हो जाता है । वह जानता है कि आत्मा वास्तव में अपने ज्ञान को पर्याय को जानता है और परज्ञय तो ज्ञान का निमित्त मात्र है । 'पर ज्ञय को जाना ऐसा कथन व्यवहार है । (२) यदि परमार्थ दृष्टि से देखा जावे तो आत्मा पर को जानता है' सो मिथ्या है, क्योकि ऐसा होने पर आत्मा और शेय (ज्ञान और ज्ञय) दोनो एक हो जावेंगे । जिसका जो होता है वह होता है' यह कानून है । इसलिए वास्तव मे यदि यह कहा जावे कि 'पुद्गल का ज्ञान है तो ज्ञान पुद्गलरूप-जय रूप हो जावेगा। अत: यह समझना चाहिए कि निमित्त सम्बन्धी अपने ज्ञान की पर्याय को आत्मा जानता है। (३) आत्मा-आत्मा को जानता है यह भी स्वस्वामी अश है ऐसे भेद से भी धर्म की प्राप्ति नही होगी क्योकि लक्षण से लक्ष्य का ज्ञान कराना, यह भो भेद है । जब तक भेद मे पड़ा रहेगा
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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