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( १८ ) अनेकान्त और स्याद्वाद प्रथम अधिकार
प्रश्न १-स्यादवाद-अनेकान्त के विषय में समयसार कलश चार में क्या बताया है ? उत्तर-उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाके,
जिनपचसि रमन्ते ये स्वय वान्तमोहाः। सपदि समयमार ते पर ज्योतिलच्च
रनवमनयरक्षाक्षुण्णमोक्षन्त एव॥४॥ श्लोकार्थ---[उभय-नय-विरोध-ध्वसिनि] निश्चय और व्यवहारइन दो नयो के विषय के भेद से परस्पर विरोध है, उस विरोध का नाश करने वाला म्यात-पद-अके] 'स्यात्'-पद से चिह्नित [जिनवचसि] जो जिन भगवान का वचन (वाणी) उसमे है [ये रमन्ते जो पुरुप रमते है (रग, राग, भेद का आश्रय छोड कर त्रिकाली अपने भगवान का आश्रय लेते है)[ते] वे पुरुप [स्वय] अपने आप ही (अन्य कारण के विना) वान्तमोहा ] मिथ्यात्वकर्म के उदय का वमन करके [उच्चै पर ज्योति समयमार] इस अतिशयरूप परमज्योति प्रकाशमान शुद्ध आत्मा को [मपदि तत्काल (उसी क्षण) [ईक्षन्ते एव] देखते ही हैं (अनुभव करते है)। कैसा है समयसाररूप शुद्ध आत्मा ? [अनवम्] नवीन उत्पन्न नहीं हुआ, किन्तु कर्मों से आच्छादित था, सो जायक की ओर दृष्टि करने से प्रगट व्यक्ति रूप हो गया है और समयसाररूप शुद्ध आत्मा कैसा है ? [अनय-पक्ष-अक्षुण्णम् ] सर्वथा एकान्तरूप कुनय के पक्ष से खण्डित नही होता, निर्वाध है।
प्रश्न २-स्यादवाद-अनेकान्त के विषय मे नाटक समयसार में क्या बताया है ? उत्तर-निहचैमै रूप एक विवहारमें अनेक,
___ याही नै विरोधमै जगत भरमायो है।
रहा होता,
निम्] सर्वथा
"वाद-अनेक