________________ ( 248 ) (4) कुदृष्टि परित्याग-परालम्बी बहिर्मुख मिथ्यादृष्टि जनो के त्याग को कुदृष्टि परित्याग कहा जाता है। सम्यक्त्व के तीन चिन्ह कहते है (5) 1. जिनागमशुश्रूषा-अनादि की मिथ्यादृष्टि को छोडकर, जिनागम मे कहे हुवे ज्ञानमय स्वरूप को पाया जाता है। उसमे उपकारी जिनागम है। उस जिनागम के प्रति प्रीति करें। ऐसी प्रीति करे कि जैसे दरिद्री को किसी ने चिन्तामणि दिखाया, तब उससे चिन्तामणि पाया। उस समय जैसे वह दरिद्री उस दिखाने वाले से प्रीति करता है, वैसी प्रतीति श्रोजिनसूत्र से (सम्यग्दष्टि) करे, उसको जिनागम शुश्रूपा कहा जाता है। (6) 2. धर्मसाधन मे परमअनुराग-जिनधर्म रूप अनन्त गुण का बिचार वह धर्मसाधन है। उसमे परमअनुराग करे, धर्म साधन मे अनुराग दूसरा चिन्ह है। (7) 3 जिनगुरु यावत्य-जिस गुरु द्वारा ज्ञान-आनन्द पाया जाता है, इसलिये उनकी वैयावत्य-सेवा-स्थिरता करे; वह जिन गुरुवयावृत्य तीसरा चिन्ह कहा जाता है। ये तीनो चिन्ह अनुभवी के अव दस विनय के भेद कहते है : (8 से 17) 1 अरहत, 2 सिद्ध, 3. आचार्य, 4 उपाध्याय, 5 साधु, 6 प्रतिमा, 7 श्रुत, 8 धर्म, 6 चार प्रकार का सघ, आर 10 सम्यक्त्व, इन दस को विनय करे; उन द्वारा स्वरूप की भावना उत्पन्न होती है। अव तीन शुद्धि कहते हैं :-- * (18 से २०)-मन-वचन-काय शुद्ध करके स्वरूप भावे, और स्वरूप अनुभवी पुरुषो मे इन तीनो को लगावे; स्वरूप को निशक नि.सदेहपने ग्रहे।