________________ ( 214 ) अखण्ड वस्तु है / ऐसा कुछ वस्तु का नियम है कि पूर्ण अखण्ड द्रव्य का द्योतक कोई शब्द ही जगत मे नही है। जो कहोगे वह एक गुण भेद का द्योतक होगा जैसे सत्-अस्तित्व गुण का द्योतक है, वस्तु-वस्तुत्व गुण का, जीव-जीवत्व गुण का, द्रव्य-द्रव्यत्व गुण का / अत लाचार होकर अभेद के लिए आपको यही कहना पडेगा कि भेदरूप नही अर्थात 'नेति' शब्द से वह आशय प्रकट किया जायेगा। अर्थ उसका होगा भेद रूप नही-अभेद रूप। यह जीव को हर समय ऐसा दिखलाता है जैसा सिद्ध मे है / पुद्गल को हर समय एक शुद्ध परमाणु / धर्मादिक तो है ही शुद्ध। अव प्रमाण दृष्टि समझाते हैं / यह कहती है, जो भेद रूप है, वही तो अभेद रूप है। जो नित्य है वही तो अनित्य है। इत्यादि रूप से दोनो विरोधी धर्मों को एकधर्मी मे अविरोध पूर्वक स्थापित करती है। उपर्युक्त तीनो दृष्टियो का ज्ञान होने पर वस्तु का परिज्ञान हर पहलू से हो जाता है। वस्तु स्वतन्त्र पर से निरपेक्ष, ख्याल मे आ जाती है। यहा तक सब ज्ञान का कार्य है। इससे आगे अब नयातीत दशा को समझाते हैं। जो कोई जीव ऊपर बतलाये हुये सब विकल्प जाल को जानकर वस्तु के परिज्ञान से सन्तुष्ट हो जाता है और अपने को मूलभूत शुद्ध जीवास्तिकाय रूप जानकर उसका श्रद्धान करता है / उपयोग जो अनादि काल से पर की एकत्वबुद्धि, परकर्तृत्व, परभोक्तृत्व मे अटका हुआ है, उसको वहा से हटाकर अपने सामान्य स्वरूप की ओर मोडता है और सब प्रकार के नय प्रमाण निक्षेपो के विकल जाल से हटकर सामान्य तत्त्व में लीन होता हुआ अतीन्द्रिय सुख को भोगता है वह पुरुप नयातीत दशा को प्राप्त होता है उनको आत्मानुभूति, समयसार, आत्मख्याति, आत्मदर्शन, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र इत्या. दिक अनेक नामो से कहा है। इसका फल कर्म कला से रहित पूर्ण शुद्ध आत्मा की प्राप्ति है। प्रश्न १३३--नय किसे कहते हैं ?