________________ ( 211 ) है। (इनका परस्पर अभ्यास करने से अनेकान्त को सब विधि लगाने का परिज्ञान हो जाता है)। तीसरे भाग का दृष्टि परिज्ञान (3) पहली पुस्तक मे तीन दृष्टियो से काम लिया गया था। अखण्ड को बतलाने वाली द्रव्यदृष्टि, उसके एक-एक गुण पर्याय आदि अशो को बतलाने वाली पर्याय दृष्टि, खण्ड अखण्ड उभयरूप बतलाने वाली प्रमाण दृष्टि। दूसरी पुस्तक मे चार दृष्टि से काम लिया गया था। वस्तु चार युगलो से गुम्फिन है। उन युगलों के एक-एक धर्म को वतलाने वाली एक-एक पर्याय दृष्टि, दोनो को इकट्ठा बतलाने वाली प्रमाण दृष्टि तथा अभेद-अखण्ड बतलाने वाली अनुभय दृष्टि या शुद्ध दृष्टि। अब इस तीसरी पुस्तक मे अन्य प्रकार की दृष्टियो से काम लिया गया है। पहली व्यवहार दृष्टि, दूसरी निश्चय दृष्टि, तीसरी प्रमाण दृष्टि, चौथा नयातीत आत्मानुभूति दशा / इनकी शुद्धि के लिये नयाभासो का भी परिज्ञान कराया गया है। अब इन पर सक्षेप से कुछ प्रकाश डालते हैं। (1) सबसे पहले यह समझने की आवश्यकता है कि जैन धर्म एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से कोई सम्बन्ध नही मानता। उनमे किसी प्रकार का सम्बन्ध बतलाना नयाभास है चाहे वह कर्ता सम्बन्धी हो या भोगता सम्बन्धो हो या और कोई प्रकार का भी हो। इतनी वात भली-भांति निर्णीत होनी चाहिए तव आगे गाडी चलेगी। (2) फिर वह जानने की आवश्यकता है कि विभाव सहित एक अखण्ड धर्मी का परिज्ञान करना है। विना भेद के जानने का और कोई साधन नहीं है अत उस द्रव्य के चतुष्टय मे दो अश हैं एक विभाव अश, शेष स्वभाव अश / विभाव अश उसमे क्षणिक है, मैल है, आगन्तुक भाव है, बाहर निकल जाने वाली चीज है। उसका नाम असद्भूत है अर्थात् जो द्रव्य का मूल पदार्थ नहीं है। उसको दर्शाने वाली दृष्टि