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रूप ही नही मान लेना क्योकि भेद तो समझाने के अर्थ किये है। 'निश्चय से आत्मा अभेद ही है । उस ही को जीववस्तु मानना । सज्ञासंख्या - लक्षण आदि से भेद कहे सो कथन मात्र ही है । परमार्थ से द्रव्यगुण भिन्न-भिन्न नही है, ऐसा ही श्रद्धान करना। इस प्रकार 'भेदरूप व्यवहारनय अगीकार करने योग्य नही है ।
प्रश्न २६ - व्यवहार बिना निश्चय का उपदेश कैसे नहीं होता ? इसके तीसरे प्रकार को समझाइये |
उत्तर - निश्चय से वीतराग भाव मोक्षमार्ग है । उसे जो नही पहचानते उनको ऐसे ही कहते रहे तो वे समझ नही पाये । तब उनको तत्त्व श्रद्धान ज्ञानपूर्वक, परद्रव्य के निमित्त मिटने की सापेक्षता द्वारा व्यवहारनय से व्रत - शील-सयमादि को वीतराग भाव के विशेष - बतलाये तब उन्हे वीतरागभाव की पहचान हुई । इस प्रकार व्यवहार बिना निश्चय मोक्ष मार्ग के उपदेश का न होना जानना ।
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प्रश्न ३० - प्रश्न २६ में व्यवहारनय से मोक्ष मार्ग की पहचान कराई । तब ऐसे व्यवहारनय को कैसे अंगीकार नहीं करना चाहिये ? सो समझाइए ।
उत्तर- परद्रव्य का निमित्त मिलने की अपेक्षा से व्रत - शीलसयमादिक को मोक्षमार्ग कहा । सो इन्ही को मोक्षमार्ग नही मान लेना, क्योकि (१) परद्रव्य का ग्रहण -त्याग आत्मा के हो तो आत्मा परद्रव्य का कर्ता - हर्ता हो जावे । परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्य के आधीन नही है । ( २ ) इसलिए आत्मा अपने भाव जो रागादिक हैं, उन्हें छोडकर वीतरागी होता है । ( ३ ) इसलिए निश्चय से वीतराग भाव ही मोक्षमार्ग है । ( ४ ) वीतराग भावो के और व्रतादिक के कदाचित कार्य-कारणपना (निमित्त नैमित्तिकपना) है, इसलिए, व्रतादि को मोक्षमार्ग कहे सो कथनमात्र ही है । परमार्थ से बाह्यक्रिया