________________ ( 156 ) ज्ञानी की दृष्टि अपने एक चैतन्य स्वभाव पर ही रहती है (6) ज्ञानियो को अस्थिरता सम्बन्धी राग काले सर्प जैसा लगता है। क्योकि ज्ञानी विभाव भावो मे होने पर भी विभाव भावो को अपने से पृथक् जानता है। (7) वर्तमान काल मे सम्यक्त्व प्राप्त करता है यह 'अचम्भा है' क्योकि वर्तमान मे कोई बलवान योग्य देखने मे नही आता है। एक मात्र कही-कही सम्यकदृष्टि का ही योग है। [परमात्म प्रकाश अध्याय दूसरा श्लोक 136] (8) सम्यग्दृष्टि को ज्ञान-वैराग्य की शक्ति प्रगट हुई है। वह गृहस्थाश्रम मे होने पर भी ससार के कार्यों मे खडा हुआ दिखे परन्तु उसमे लिप्त नही होता है। निलेप रहता है क्योकि ज्ञान धारा और उदयधारा का परिणमन पृथक-पृथक है। अस्थिरता के राग का ज्ञानी ज्ञाता रहता है। (8) जैसे-मुसाफिर एक नगर से दूसरे नगर जाता है तब बीच के नगर छोडता जाता है उनमे रुकता नही है / उसी प्रकार साधक दशा मे शुभाशुभ बीच मे आते हैं / ज्ञानी उन्हे छोडता जाता है। उनमे रुकता नही है / (10) एक समय मात्र स्वभाव से दृष्टि ज्ञानी की हटती नहीं है। यदि एक समय मात्र भी स्वभाव से दृष्टि हट जावे तो अज्ञानी हो जाता है। प्रश्न ४८-अरि-रज-रहस का क्या अर्थ है और किस शास्त्र मे यह अर्थ किया है ? उत्तर–अरि=मोहनीय कर्म / रज-ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय। रहस= अन्तराय / वृहत द्रव्यसग्रह गाथा 50 की टीका मे तथा चारित्र पाहुड गाथा 1-2 की टीका मे किया है। प्रश्न ४६-परमात्मप्रकाश प्रथम अधिकार गाथा 7 मे किसको उपादेय और किसको त्यागने योग्य कहा है ? ____ उत्तर-(१)पाँच अस्तिकायो मे निजशुद्ध जीवास्तिकाय को, (2) पट् द्रव्यो मे निजशुद्ध द्रव्य को, (3) सप्त तत्वो मे निज शुद्ध जीवतत्व को, (4) नव पदार्थो मे निज शुद्ध जीव पदार्थ को उपादेय कहा है / अन्य सब त्यागने योग्य है। ऐसा कहा है।