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द्रव्य, सात तत्व, स्व-पर को पहिचानना तथा देव - गुरु-धर्म को पहिचानना । (३) त्यागने योग्य मिथ्यात्व - रागादिक, तथा ग्रहण करने योग्य सम्यग्दर्शन-ज्ञानादिक का स्वरूप पहिचानना ( ४ ) निमित्त नैमित्तिक, निश्चय व्यवहार, उपादान - उपादेय, छह कारक, चार अभाव, छह सामान्य गुण आदि को जैसे हैं, वैसे ही जानना, इत्यादि जिनके जानने से मोक्षमार्ग मे प्रवृत्ति हो उन्हे अवश्य जानना चाहिए, क्योकि यह सब मोक्षमार्ग मे प्रयोजनभूत हैं ।
प्रश्न १४७ -- प्रयोजनभूत तत्वों को जीव यथार्थ जाने-माने तो उसे क्या लाभ होगा
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उत्तर -- यदि उन्हे यथार्थ रूप से जाने-श्रद्धान करे तो उसका सच्चा सुधार होता है अर्थात् सम्यग्दर्शन प्रगट होकर पूर्णदशा को प्राप्ति हो जाती है ।
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प्रश्न १४८ - जीव को धर्म समझने का क्रम क्या है उत्तर- ( १ ) प्रथम तो परीक्षा द्वारा कुदेव, कुगुरु और कुधर्म की मान्यता छोडकर अरहत देवादिका श्रद्धान करना चाहिए, क्योकि उनका श्रद्धान करने से गृहीत मिथ्यात्व का अभाव होता है। (२) फिर जिनमत मे कहे हुए जीवादि तत्वो का विचार करना चाहिए, उनके नाम लक्षणादि सीखना चाहिये, क्योकि उस अभ्यास से तत्व श्रद्धान की प्राप्ति होती है । (३) फिर जिनसे स्व-पर का भिन्नत्व भासित हो वैसे विचार करते रहना चाहिए, क्योकि उस अभ्यास से भेदज्ञान होता है । ( ४ ) तत्पश्चात् एक स्व मे स्व-पना मानने के हेतु स्वरूप का विचार करने रहना चाहिए, क्योकि उस अभ्यास से आत्मानुभव की प्राप्ति होती है । इस प्रकार अनुक्रम से उन्हे अगीकार करके फिर उसी मेसे, किसी समय देवादि के विचार में, कभी तत्व विचार में, कभी स्व-पर के विचार मे तथा कभी आत्म विचार उपयोग को लगाना चाहिये । यदि पात्रजीव पुरुषार्थ चालू रक्खे तो इसी अनुक्रम से उसे सम्यक्दर्शनादि की प्राप्ति हो जाती है । [ मोक्षमार्ग प्रकाशक ]