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( ९३ ) नष्ट किये विना अविरति, प्रमाद, कषाय आदि कभी दूर नहीं हाते, इसलिए सबसे पहले मिथ्यात्व को दूर करना चाहिए।
प्रश्न १०६-मिथ्यात्व को सबसे पहले क्यो दूर करना चाहिए?
उत्तर-मिथ्यात्व सात व्यसनो से भी बढकर भयकर महापाप है, इसलिए जैनधर्म सर्वप्रथम मिथ्यात्व को छोडने का उपदेश देता
प्रश्न १०७-आचार्यकल्प पं० टोडरमल जी ने मिथ्यात्व के विषय में क्या कहा है?
उत्तर-हे भव्यो । किंचित् मात्र लोभ से व भव से कुदेवादिक का सेवन करके, जिससे अनन्तकाल पर्यन्त महादु ख सहना होता है ऐसा मिथ्यात्वभाव का करना योग्य नहीं है। जिन धर्म मे तो यह आम्नाय है कि पहले बडा पाप छुडाकर फिर छोटा पाप छुडाया है, इसलिए इस मिथ्यात्व को सप्त व्यसनादिक से भी वडा पाप जानकर छुडाया है । इसलिए जो पाप के फल से डरते हैं, अपने आत्मा को दुख समुद्र मे डुवाना नही चाहते, वे जीव इस मिथ्यात्व को अवश्य छोडो। (मोक्षमार्ग प्रकाशक)
प्रश्न १०८-जो जीव इन मिथ्यात्वो के प्रकारो को जानकर दूसरे का दोष देखते हैं अपना नहीं देखते। उसके लिए आचार्यकल्प प० टोडर मल ने क्या कहा है ?
उत्तर-"मिथ्यात्व के प्रकारो को पहिचानकर अपने मे ऐसा दोष हो, तो उसे दूर करके सम्यक् श्रद्धानी होना, औरो के ही ऐसे दोष देख-देखकर कपायी नही होना, क्योकि अपना भला-बुरा तो अपने परिणामो से है। औरो को तो रुचिवान देखें, तो कुछ उपदेश देकर उनका भी भला करे। इसलिये अपने परिणाम सुधारने का उपाय करना याग्य है, सब प्रकार के मिथ्यात्व भाव छोडकर सम्यग्दृष्टि होना योग्य है, क्योकि ससार का मूल मिथ्यात्व है और मोक्ष का मूल सम्यक्त्व है और मिथ्यात्व के समान अन्य पाप नही हैं । इसलिए जिस