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________________ प्रदत श्री कृष्ण का उपदेश जैन परम्परा का स्मरण करा देता है।बी मुनि मषमन मांगिरस मोर मरिष्टनेमि को एक ही व्यक्तित्व होने की सम्भावना व्यक्त करते है। श्रीकृष्ण प्रौर परिष्टनेमि के पारिवारिक सम्बन्धो से भी हम परिचित ही है। 2. तीर्थकर पार्श्वनाथ और महावीर तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ से जैन संस्कृति का ऐतिहासिक काल प्रारम्भ होता है। इनके पूर्ववर्ती तथंकरो को पौराणिक कहकर नकाखमा चम्कन पर पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता को अस्वीकार करने का साहस अब किमी में नहीं है। उनकी परम्परा भगवान महावीर के काल तक चलती रही है । महावीर का समूचा परिवार पार्श्वनाथ परम्परा का अनुमायी रहा है। पार्श्वनाथ का जन्म महावीर से 250 वर्ष पूर्व वाराणसी नगर में हुमा । उनके पिता राजा अश्वसेन पौर माता वामा थी। यह एक ऐसा समय था जबकि परीभित के बाद जनमेजय कुरु देश में यज्ञ संस्कृति का प्रचार कर रहा था। जैन साहित्य में तो पार्य परम्परा का वर्णन मिलता ही है पर बौद्ध साहित्म भी इससे अछूता नहीं रहा। पालि त्रिपिटक मे पार्श्वनाथ की चातुर्याम परम्परा का विवरण मिलता है-अहिंसा, सत्य, मचौर्य और अपरिग्रह । यह विवरण कुछ धूमिल रूप में अवश्य उपलब्ध है पर वह अस्पष्ट और अननुसन्धेय नहीं है । तथा गत बुद्ध ने भी पार्श्व परम्परा में दीक्षा ली थी। उनके प्रमुख शिष्य सारिपुत्र पौर मौद्गल्यायन भी कदाचित् बुद्ध के अनुयायी होने के पूर्व पार्श्व परम्परा के अनुपायी थे। यज्ञ संस्कृति का विरोध करने वाली पानाथ परमपरा का श्रमण संघ बुद्ध काल में मौजूद था उसकी साधना विशुद्ध प्राध्यात्मिक साधना थी। कहा जाता है, चातुर्याम परमरा अजितमाय से पार्श्वनाथ तक रही है । उसे पंचयाम में चौबी. सवें तीर्थकर महावीर ने परिवर्तित किया था। भगवान पार्श्वनाथ के उपरान्त चौबीसवें तीर्थकर वर्धमान महावीर हुए। वे अपने समय के कुशल चिन्तक और सामाजिक तथा धार्मिक परम्परामों किया रूढ़ियों को तोडकर, उन्हें सुष्यवस्थित करने वाले प्रतिभाशाली दार्शनिक तथा मास्मिक और सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत थे। उन्होंने व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को अपने सूक्ष्मचिंतन तथा ज्ञान से मालोकित किया । उत्तर काल में उनके अनुयायी शिष्यों प्रशिष्यों ने महावीर के चिन्तन को माधार बनाकर समयानुसार उनके तत्वों को विकास के चरण-पथ पर संजो दिया । । उनका प्राविर्भाव हमारी भारत वसुन्धरा के रमणीय बिहार (विवहा प्रवेश के वैशालीय क्षत्रिय कुण्डग्राम में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की मध्य रात्रि में ई.पू.599 में पा था। उनके पिता राजा सिद्धार्थ थे जिन्हें श्रेयांस पोर यशस्वी भी हा जाता था और माता का नाम पाशिष्ठ गोत्रीय विमला था यो विदाला और प्रियकारिणी के नाम से भी वित्रत थीं।
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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