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________________ 1 जैन धर्म की एतिहासिक एवं साहत्यिक परम्परा 1. जैन ऐतिहासिक परम्परा जैन धर्म वर्ग, जाति, लिंग प्रादि जैसे मानवकृत कटघरों से उन्मुक्त विशुद्ध safe धर्म है । ग्रात्मा की पवित्रतम ऊंचाई को छूकर पाकर उसके ज्ञानात्मक और दर्शनात्मक स्वभाव में रमण करना व्यक्ति का परम कर्तव्य है । जैन धर्म इस कर्तव्य के साथ सामाजिकता और मानवीयता को सहजताबस एकबद्ध कर देता है । 1. ग्राद्य परम्परा तीर्थंकर ऋषभदेव से नेमिनाथ तक जैन धर्म की कहानी व्यक्ति की सृष्टि की कहानी है । धनादि और अनन्त की कहानी है | अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के कालचक्र से घूमता हुमा सृष्टिचक कुलकर व्यवस्था मे केन्द्रित हुम्रा और उसने प्रादिनाथ ऋषभदेव से बहार कलामों की शिक्षा पाकर भोगभूमि से कर्म भूमि की भोर अपने विकास के कदम बढ़ाये । कर्मभूमि में पदार्पण होते ही क्षमा, संतोष श्रादि सहज धर्मों में लिप्सा, मोह, कोष भादि बाह्य विकारो की वक्रता घर करती गई और फलतः भरत- बाहुवलि जैसे भाइयों के संघर्ष संसार के घिनौने स्वरूप को प्रमट करने लगे । मादिनाथ के बाद जैन धर्म अजितनाथ, संभवनाथ प्रादि बीस और प्राध्याfree eyes की सुखद छाया को बता बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के काल तक पहुंचा। इस बीच की कोई परम्परा स्पष्ट रूप में उपलब्ध नहीं होती । सिन्धु घाटी की सभ्यता मे जैन सस्कृति के बीज नहीं, विकसित चिन्ह खोजे जा सकते हैं और वेदों की ऋचायों में जैन मुनियों की जीवन रेखा को प्रकित पाया जा सकता है । बार्हद, व्रात्य, वातरशना के प्रनेक उल्लेखों ने विद्वानों को यह मानने के लिए बाध्य कर दिया है कि जैन संस्कृति वैदिक संस्कृति के साथ-साथ चलती रही है। कुछ विद्वानों का तो वह भी मत है कि जैन संस्कृति वैदिक संस्कृति से भी पूर्वसर होनी चाहिए । जाम कथा (2) में बाईसवें तीर्थकर अरिष्टनेमि को भगवान श्री कृष्णा का surfers गुरु माना गया है । छादोग्योपनिषद् (3.17,6) में घोर मांगिरस द्वारा
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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