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________________ व्याख्यान सुनकर कार्यरूप में परिणित करने की अपेक्षा धर्म के ठेकेदार उपाधिलोलुप महामुनियों ने कुछ विचारशुन्य श्रीमन्तों को सहारा लेकर आपको श्रीसंघ से पृथक करा दिया। इस आपत्ति के तीव्र थपेड़े से पणिडत जी तनिक भी विचलित नहीं हुये, वे पर्वत के समान अपने विचारों पर दृढ़ बने रहे। क्योंकि वे जानते थे कि "सर्वथासत्य, प्रकटसत्य, शुद्धसत्य एक ऐसा भारी रसायन है जिसे मनुष्य मात्र झेल नहीं सकता।" जिस प्रकार शेरनी का दूध कंचन के सिवा अन्य किसी पात्र में नहीं ठहर सकता वैसे यही शुद्ध सत्य भास्कर के तेजस्वी प्रकाश को साधारण मानव, जिनके नेत्र अन्यविश्वासरूप पीलिये रोग से विकार युक्त हो गये हैं नहीं झेल सकते । अपने पुनः एक बार अपने दिये हुये व्याख्यान को परीक्षा की कसौटी पर कसा, अत्यन्त परिश्रम पूर्वक इस विषय का अध्यन किया। उत्तरोत्तर विचारों की पंष्टि होती गई और जो भी जैनग्रन्थ-रत्नाकर में गहरे उतरकर अपने खोज की वह पुस्तक रूप में पाठकों के सामने रख दी। साहसी विद्वान ने जिस निर्भीकता के साथ जैन समाज को अन्धविश्वास, एकान्तवाद, सुप्तवाद श्वेताम्बर दिगम्बरवाद, चैत्यवाद, देवद्रव्यवाद और आगमवाद के अँधेरेकूप में से निकालने के लिये जो भगीरथ प्रयत्न किया है वह अवश्य ही सराहनीय है। मैंने पुस्तक को आधीप्रान्त बड़े चाव से पढ़ा है। लेखक ने समाज की वर्तमान पतितावस्था का मूलकारण जैनसाहित्य में उत्पन्न हुआ विकार माना है। वास्तव साहित्य ही देश और ममाज का जीवन होता है। इसीलिये वह अत्यन्त आदरणीय प्राणों से अधिक मूल्यवान और सब वस्तुओं में श्रेष्ठ समझा जाता है। पर दुर्भाग्यवश संसार के परिवर्तन के साथ साथ हमारे जैन-साहित्य में कुछ भी ऐसा अनर्थकारी परिवर्तन हुआ है जो हमारे लिये हितकर नहीं । इसी विकारयुक्त परिवर्तन की समालोचना करते हुये प्रस्तुत पुस्तक में श्वेताम्बर दिगम्बरवाद २ चैत्यवाद, ३ देवद्रव्यवाद, और ४ आगमवाद जैसे आवश्यकीय और महत्वपूर्ण विषयों पर विवेचन किया गया है। मालूम पडता हैं पुस्तक लिखते हुये लेखक महोदय रोये हैं। उनका युवक हृदय समाज की सनप्त अवस्था देखकर उथल पड़ा है। उसी आवेश में श्वेताम्बर दिगम्बरवाद नामक स्तम्भ में लिखा है. इन शब्दो की (श्वेताम्बर दिगम्बर) प्रवृत्ति चाहे जब हुई हो, परन्तु उसका मूलकारण हमारे मुनिराज ही होने चाहिये। इन शब्दों के मूल प्रवर्तक साधु-मुनियों को वर्तमान सरकार की ओर से धन्यवाद मिलना चाहिये, कि जिसके परिणाम में वह अदालतों द्वारा दोनों समाजों
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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