________________
भूमिका प्रस्तुत पुस्तक के मूललेखक श्री पं. बेघरदास जी जीवराज श्वेताम्बर जैन समाज के गणयमान्य उदार हृदय विद्वानों में से एक हैं। आप प्राकृत, व्याकरणादि अनेक ग्रन्थों के लेखक, अनुवादक, सम्पादक तथा संस्कृत, प्राकृत, पाली, गुजराती बंगला आदि कई भाषाओं के विद्वान हैं। साम्प्रदायिक कट्टरता से कोसों दूर रहते हैं। अभी आप युवक है, किन्तु अध्ययन विशाल, भाषा प्रौड़ और संयत है। अत्यन्त सूक्ष्मदर्शी हैं जो भी लिखते हैं पूरे अधिकार के साय, अँचें तुले नपे हुये शब्दों में। यही कारण कि आप विश्ववन्ध महात्मागान्धी के गुजरात पुरातत्व-मन्दिर में एक ऊँचे पद पर प्रतिछित हैं और वर्तमान असहयोग आन्दोलन में महात्माजी के कृष्णमन्दिर में जा बैठने पर उनके "नवजीवन" जैसे जिम्मेदार पत्रके सम्पादक होने का गौरव प्राप्त कर चुके हैं।
पुस्तक पढ़ने से मालूम होता है कि विद्वान लेखक के हृदय में समाज की दयनीय दुरावस्था के लिये एक टीस है जो उन्हें बेचैन किये रहती है, उनकी आँखों में किसी गुप्त वेदना के आँसू हैं जो छुपाने पर भी छलक पड़ते हैं। वास्तव में जिनके पास हृदय हैं वे ससारन को दुःखी देखकर रोते हैं- तडपते हैं, वे उस सुखी करने के लिये अनेक विधन बाधाओं में गुजरते हुये मिट जाते हैं, ससार उन्हें जाने या न जाने वे ससार को जान जाते है।
आज से दस बारह वर्ष पूर्व विद्वान लेखक के बम्बई की मागरोल जैन सभा में पुस्तक में वर्णित विषय पर एक सार गर्भित व्याख्यान दिया था। आपने कहा था कोई भी धर्म, कलह को पोक्ति नहीं करता, प्रजा के विकाश की रुकावट नहीं करता और प्रजा के विकाशकारक व्यवहारिक नियमों में हस्तक्षेप नहीं करता तथापि वर्तमान युग के धर्मी धर्म को समाने रखकर मानों स्वय ही धर्मरक्षक न हों, ऐसा ममझ कर धर्म के नाम से कलह करते है, प्रजाबल को क्षीण करते हैं. युवकों के विकाश को रोकते हैं और जागृत होती हुई प्रजा को धर्म को हाऊ से डराकर उसे सुला देने को प्रयत्न कर रहे हैं। .. . रक्षा करने वाली बाड़ ही खेत खा रही हैं। धारण किये जाने वालाधर्मही उमके आश्रितों को नीचे कर रहा है और माता-पिता के समान धर्मगुरुओं को अपनी सन्तान की बेदना-पूर्ण कराहना की ओर दृष्टिगत करने तक का अवकाश नहीं मिलता। वे अनेक यातनायें सहते हुये जीतेजागते जैनियों की शोचनीय दशापर दुर्लक्षकर अपने बंशवृद्धि की चिन्ता में लीन है,...