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23 वाले को वैद्य ने अफीम खाने को कहा हो और फिर वह दरदी हमेशा के लिये अफीमची-अफीमका गुलाम बन गया हो, वैसे ही इस पक्ष के मुनि आहार, वस्त्र और पात्र के आपवादिक विधान को पकड़ कर उसके गुलाम बने देख पड़ते हैं। इतने ही से बस नहीं किन्तु दिन प्रतिदिन इन मुनियों की आवश्यकतायें, इनके अखराजात इतने बढ़ गये है कि समाज उन्हें पूर्ण करते हुये निचड़ गया है, निचड़ता जा रहा है। (साधारण स्थिति के श्रावक बड़े बड़े नामधारी व पदवीधारी मुनियों का चातुर्मास कराते हुये डरते हैं) वर्तमान समय में आदर्श में आदर्श सद्गृहस्थ जिस मितता का सेवन करता है, उससे समानता करें तो अचेलक वर्धमान के मुनियोका पलड़ा बिल्कुल नीचे नम जाता है। मैं मानता हूं कि वे अपनी इस तरह की प्रवृत्ति से महाश्रमण श्रीवर्धमान और उनके प्रवचन की घोर आशातना कर रहे हैं। वे इस प्रकार का भीषण मूर्तिवाद स्वीकारते हैं कि जिसमें तमाम प्राणियों को शान्तिदान देनेवाली वर्तमान समय में अहिंसा देवी भी होमी गई है। वे ज्ञान की पूजा पढ़ाते हैं, ज्ञान के समक्ष लड्डू, बतासे और पैसे चढवाते हैं, परन्तु उनकी सन्तान प्रतिदिन अज्ञान, विद्याविहीन होती जा रही है, उनका साहित्य बन्द किये भाण्डारो मे सडता जा रहा है, परन्तु इस ओर लक्ष्य न देकर उन ज्ञानके पजारियो ने ज्ञान भाण्डारों पर अपने डबल चाबी के ताले लगाकर उसे अपना कैदी बना रक्खा है। जिस तरह ज्ञानके लिये वैदिक धर्म मे वेदोंका ठेका ब्राह्मणों ने ही ले रक्खा है वैसे ही इस पक्ष के मनि (चाहे वे मेरे जैसे गृहस्थ के पास ही पढ़े हो) कहते हैं कि सत्र पढ़ने का अधिकार मात्र हमें ही है-श्रावकों को नहीं। उनकी धार्मिक संपत्ति मे परम निर्ग्रन्थता, आदर्श श्रावकता, उच्च जीवन, नाग्रही जीवन, इत्यादि अहिसकता, प्रमाणिकता, मार्गानुसारिता, इत्यादि सद्गुणों के बदले विलासी साधुता, नामकी श्रवकता, चेलो की वृद्धि, पुस्तकों की ममता, अयुक्त पदवियों का मिथ्या आडम्बर, गुणी और गुणकी ओर ईर्ष्यालुता, बडे बडे देवालय, अचेलक और परम तपस्वी तीर्थकारो के लाखों रुपयो के जेवर तथा शत्रुजयवासी आदीश्ररका कई लाख का जवाहराती मुकुट है। मुझे अपने इसे कमनसीब समाज की दुर्दशा का चित्र खीचते हुये बड़ा दुख होता है। मैं यह भी मानता हू कि यदि
१ कर्मापुत्र नामक मुनि केवल ज्ञान प्राप्त होने पर विचार करता है यदि मैं चारित्र ग्रहण करू तो पुत्र शोक मे मेरे माता पिता की मृत्यु हो जायगी।, १२५, "किसी तीर्थकर को इन्द्रने पूछा कि यह कर्मापुत्र केवली महाव्रती कब होगा? १७५-कर्मापुत्र चरित्र देखो। इससे आप समझ सकते हैं कि जैन ग्रन्थकार सिर्फ वस्त्र रहित केवली को भी महाव्रती नहीं मानते। जैन कथानुयोग की यह विचित्रता देखने लायक है।