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________________ 22 करने तक भी नहीं चूकता। यह दशा दिगम्बर जैन समाज की है। श्रेताम्बर पक्ष वस्त्र पात्रवादको * ही अवलम्बित करता है। उपरोक्त प्रकार से उसके सूत्र ग्रन्थों में स्पष्टतया अचेलकता का विधान विद्यमान है, तथापि अचेलक शब्द का अनुदरा कन्याके समान अपने लिये अनुकूल अर्थ किया जाता है। जिसके परिणाम में आज इस समाज के मुनि वस्त्र पात्र के गट्ठड तक रखने लग गये हैं। इन में से मेरा श्रेताम्बर मूर्तिपूजक सप्रदाय मूर्तिवाद को ही स्वीकारता है और सो भी यहां तक कि मूर्ति के नाम से बडी बडी दुकानें खोलकर लाखो रुपयों का धन संग्रह करने मे ही इन्द्रासन की प्राप्ति का स्वप्न देख रहा है, मूर्ति के ही नाम से विदेशी अदालतों में जाकर समाजकी अतुलधन सम्पत्तिका तगार कर रहा है। यह सम्प्रदाय कदोरा-कटी सूत्रवाली मूर्तिको ही पसंद करता है, उसे ही मुक्ति का कारण समझता है। वीतराग सन्यासी - फकीर की प्रतिमा को जैसे किसी एक बालक को गहनो से लाद दिया जाता है उसी प्रकार आभूषणों से शृगारित कर उसकी शोभा में वृद्धि की समझता है और परम योगी वर्धमान या इतर किसी वीतराग की मूर्तिको विदेशी पोशाक जाकिट, कालर, घडी वगैरह से सुसज्जित कर उसका खिलौने जितना भी सौन्दर्य नष्ट भ्रष्ट करके अपने मानव जन्म की सफलता समझ रहा है। इस समाज के कुलगुरूओ ने अपने को पसद पडे हुये वस्त्र पात्र वादके समर्थन के लिये पूर्वके महापुरूषो को भी चीवर धारी बना दिया है और श्रीवर्धमान महाश्रमण की नग्नता न देख पडे इस प्रकार का प्रयत्न भी किया है। इस विषय के अनेक ग्रन्थ लिख कर वस्त्र पात्र वादको ही मजबूत बनाने की वे आज तक कोशिश कर रहे हैं। उनके लिये आपवादिक माना हुआ वस्त्र पात्र वादका मार्ग औत्सर्गिक मार्ग के समान हो गया है। वे इस विषय में यहां तक दौड़े हैं कि चाहे जैसे अगम्य जगल मे, भीषण गुफामे, या चाहे जैसे पर्वत के दुर्गम शिखर पर भावना भाते हुये केवल ज्ञान प्राप्त हुये पुरूष या स्त्री के जैनी दीक्षाके लिये शासनदेव कपड़े पहनाता है??? और वस्त्र के बिना केवल ज्ञानिको अमहाव्रती तथा अचारित्री कहने तक भी नही हिचकिचाये । कोई मुनि वस्त्र रहित रहे यह बात उन्हें नही रूचती, उन के मन वस्त्रपात्र बिना किसी की गति ही नही होती। किसी दस्तो की बीमारी १- तेरहवी शताब्दी के एक दिगम्बर पण्डित श्री आशाधर जी ने ३६ सागार धर्मामृत पृ० ४३० में लिखा है कि यह पचमकाल धिक्कार का पात्र है, क्योंकि इस कालमें शास्त्रभ्यासियों का भी मंदिर या मूर्तियो के सिवाय निर्वाह नही होता । * अनेकान्तवाद की दृष्टि से किसी तरह की मान्यता से भी हानि नहीं होती, किन्तु 'भी' के स्थान में जो 'ही' घुस गया है उसीने इस अनेकान्त अपेक्षाबाद को विकृत कर कदाग्रहों द्वारा छिन्न भिन्न कर डाला है।
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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