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________________ ४. “तए णं सा देवाणंदा अज्जा अज्जचंदणए अज्जाए अंतियं सामाइय माइयां एक्कारस अंगाई अं हिज्जई"- - भग० अजीम० पृ० ७६७. ५. "तुमं गोसाला ! भगवया चैव पब्बाविए भगवया चेव बहुस्सुईकए" भग० अजीम० पृ० १२४७ इसके अतिरिक्त ऐसे अन्य भी अनेक उल्लेख मिलते हैं, परन्तु वे सब एक सरीखी रीति से लिखे होने के कारण उनमें से एक में भी पर्यायक्रम या योगाद्धह की छींट तक मालूम नहीं देती। די मैं प्रथम बतला चुका हूँ कि चैत्यवासियों को पीछे हटाने के लिये किसी क्ष पुरुष ने तीव्र तपश्चर्यारूप उपधान या योगोद्धहन की नीव डाली है या उन चैत्यवासियों ने ही उस समय के श्रावकों को यह समझाया हो कि योगोद्वदन किये बिना हमें भी सूत्र पढने का अधिकार नहीं है और उपधान किये सिवा श्रावकों को नवकार बोलने का भी अधिकार नहीं तो फिर श्रावकों के सूत्र पढने की तो बात ही क्या ? इस प्रकार समझाकर उन्होंने भद्र श्रावकों से उपधान के कर रूप में मिलते हुवे द्रव्य को हडप करने का प्रपच रचा हो तो यह सभवित है। चाहे जो हो परन्तु उपधान यकी सामुदायिक वर्तमान पद्धति जो हलवाई की दुकान के समान मादक और मोहक है वह चैत्यवासियों के समय की है इसमें जरा भी सदेह को स्थान नहीं । उपधान के विषय में किसी भी अंग सूत्र में कुछ सुराक नहीं चलता, मात्र महानिशीय सूत्र जो अगसूत्रों से बाहिर का है और जो चैत्यवासियों की हलकी स्थिति में संकलित किया गया है उसमें ही इस उपधान आदि का कुछ उल्लेख मिलता है। यह सूत्र अंग सूत्रो के समान सर्वमान्य नहीं समझा जाता। प्राचीन आचार्यो मे भी इस सूत्र की प्रमाणिकता के लिये भारी मतभेद हो चुका है (देखो शतपदी और महानिशीय) यदि कदाचित् हम अन्य बातो को छोड़कर इस बातपर ही विचार करे कि सूत्र ग्रन्थों सूत्र पढ़ने वालों में से किसी ने उपधान आदि किया हो यह उल्लेख नहीं मिलता एव सूत्रगत आचार के नियमों में इस पद्धति के वर्णन गन्धतक नहीं तो यह उपधानादिका विधान महानिशीय सूत्र में वह भी एक छेद सूत्र और आपवादिक मार्गदर्शक सूत्र मे कहाँ से आया ? इन सब बातों का विचार करने पर हमें विवश होकर यह कबूल करना पडता है कि यह उपधान विधान आदि उन चैत्यवासी बाबाओं की उपजाऊ कल्पवल्ली है और इसी कारण यह उनके समय के ग्रन्थ में लिखी हुई है। यदि हम साधारण धार्मिक दृष्टि से विचार करे तो भी यह मालूम होगा कि जिन सूत्रग्रन्थों में काष्ठ की पुतली को भी देखना निषेध किया है वे ही 110
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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