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________________ अनधिकारी ठहराये थे और तब से लेकर ये भद्रिक श्रावक आज तक परतन्त्रता की जंजीरों में जकड़े हुये बेचारे विचार शून्य से हो बैठे हैं। प्रतिदिन तीन खमासमणों दे देकर अपने स्वामियों को सुखसाता पूछा करते है, परन्तु इसका परिणाम परतन्त्रता की वृद्धि के सिवा अन्य कुछ नहीं आता। कितनेक कहते हैं कि साधुओं को भी अमुक अमुक वर्ष का दीक्षापर्याय होने पर यही अमुक अमुक सूत्र पढ़ने का अधिकार है तब फिर श्रावकों के अधिकार की तो बात ही क्या ? जहाँ तक मैंने खोज की है उस से यह साबित होता है कि यह पर्याय वाद का विधान भी चैत्यवासियों के समय का ही है, क्योंकि मैंने सूत्रग्रंथों में बहुत से श्रमणों के चरित्र पढ़े हैं उनमें उन्होंने इस क्रम की मर्यादा पालन किया हो यह मालूम नहीं होता। इससे यह साबित होता है कि अमुक दीक्षा पर्याय वाला ही अमुक सूत्र का अध्ययन करें यह विधान प्राचीन नहीं कितु अर्वाचीन है तथा यह पद्धति एवं कठिन तपरूप उपधानों की पद्धति भी उन चैत्यवासियों को पीछे हटाने के लिये ही रची गई है और उसका प्रारम्भ भी तब से ही हुआ है । यदि ये दोनों रीति प्राचीन और विधि विहित होती तो सूत्र ग्रन्थों में उसका उल्लेख अवश्य मिलता और सूत्रों में वर्णित आदर्शमुनि भी उसका अनुसरण करते । सूत्रों में वर्णित किये गये मुनियों के चरित्र में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि उन्होंने उपधान (योगोद्वहन) करके ही सूत्र पढे हो, इसलिये यह प्रकार भी अर्वाचीन और अविहित है । जहाँ जहाँ पर साधुओं के सूत्राभ्यास का उल्लेख मिलता है वहाँ कहीं पर उन्होंने सूत्रों के पढने से पहिले योगोद्वहन किया हो ऐसी गधतक भी नहीं आती। मैं मानता हूँ कि जो श्रमण-निर्ग्रन्थ निरन्तर योगनिष्ट, तपस्वी, अकषायी, और सुविनीत हों उन्होंके लिये योगोद्वहन का विधि सर्वथा निरर्थक है । परन्तु जो श्रमण श्रीहरि भद्रसूरि ने बतलाये वैसे हों उन योगच्युत उदरम्भरी साधुओं के लिये यह योगोद्वहन की पद्धति उचित हो सकती है और ऐसा होने से ही मुझे यह बतलाना पडा है कि इस पद्धति का समय चैत्यवास का समवर्त्ति है। सूत्रों में जो साधुओं के सूत्राभ्यास के उल्लेख मिलते हैं उनमें से थोडे से नीचे देता हूँ १ "तएण से खंदए अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाण थेराण अति सामाइ माइयाई एक्कारस अगारे अहिज्जइ " - भगवतीसूत्र अजीम पृ० १६५ २ एत्थ से कालोदायी सबुद्धे एव जहा खदए तहेव पव्वइए तहेव एक्कारस अगाणि " - भग० अजीम० पृ० ५१४ ३ " ( उसभदत्तो) एएण कमेणं जहा खंदओ तहेव पव्वए जाव० सामाइय 'माइयाइ एक्कारस अंगाई अहिज्जइ" - भग० अजीम० पृ० ७६६ 109
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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