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( ७७ ) हिन्दी-जन-पूजा-काव्य में जैन भागम के अनुसार भूतभक्ति का प्रतिपादन
पारित भक्ति
आचरण का अपरनाम चारित्र है। अच्छा और बुरा विषयक इसके दो र किए गए हैं। चारित्र भक्ति में श्रेष्ठ चारित्र का चिन्तवन होता है। संसार-बन्ध के कारणों को दूर करने की अभिलाषा करने वाले भानी पुरुष को को निमित्त मृत किया से विरत हो जाते हैं, इसी को बस्तुतः सम्बक चारित्र कहते हैं। चारित्र मशानपूर्वक न हो अतः सम्यक् विशेषण जोड़ा गया है। जो जाने सो मान और जो बेले सो दर्शन तथा इन दोनों के समायोग को चारित्र कहते हैं।
ज्ञान विहीन क्रिया कर्मकाण्ड कहलाती है। इसीलिए इसे सम्बक चारित्र नहीं कहा जा सकता। इसके लिए सच्चा भाव अपेक्षित है अर्थात् इसे आभ्यन्तर चारित्र भी कहा गया है। चारित्र भक्ति के सम्पर्म में आचार के पांच प्रमेव जिनवाणी में उल्लिखित है यथा-(१) मावाचार, (२) वर्णनाचार (३) तपाचार (४) बीर्याचार (५) चारित्राचार बारित्रपरक महिमा वर्णन वस्तुतः चारित्रमक्ति कहलाती है। संयम, यम और ध्यानादि से संयुक्त चारित्र भक्ति की महिमा अक्षितीय है, इसके अभाव में मुनि-तप भी व्यर्थ है।'
१. संसार कारण निवृत्ति प्रत्यापूर्णस्य ज्ञानवतः कर्मादान निमित कियोपरमः
सम्यक् चारित्रम् । -सर्वार्थसिद्धि, भाचार्य पूज्यपाद, भारतीय ज्ञानपीठ, कामी, प्रथम संस्क
रण, वि. सं. २०१२, पृष्ठ ५। २. जं जाणइ तं गाणं जं पिच्छह तं पदसणं भणियं ।
माणस्स पिच्छयस्स य समवण्णा होइ पारितं ।। -अष्टपार,बाचार्यकुदकुद, श्रीपाटनी दि० जैन ग्रंपमाला, मारोठ, मारवाड़, गाथांक ३।। ३. ज्ञानं दुर्मग देह मण्डनमिव स्यात् स्वस्य खेदावहं ।
धत्तं साधु न तत्फल-श्रियमयं सम्यक्त्वरत्नांकुर ॥ -यशस्तिलक, आचार्य सोमदेव, यशस्तिलक एण्ड इम्पिन कल्चर, प्रो.के. के. हण्डीकी, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, प्रथम संस्करण १९४६, पृष्ठ ३०६।