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दो भेद किए गए हैं---यथा- (१) द्रव्यभूत, (२) मावश्रुत। शास्त्रों को अव्यभूत में परिगणित किया गया है। जैन धर्म में शास्त्र-पूजन को अविस द्रव्यपूजन की कोटि में रखा है ।' भगवान जिनेन्द्र को मूर्ति के समान हो शास्त्रों को भी प्रतिष्ठा होने लगी और तारण-पंथ ने तो अहंत की मूर्ति को न पूजकर शास्त्रों की पूजा में अपने विश्वास की स्थापना की है।"
मावत को ज्ञान कहते हैं। वह शास्त्रीय अध्ययन के अतिरिक्त प्रत्यक्ष रूपी भी है। जिनेन्द्र भगवान के कहे गए गणधरों के रचित अंग और अंग बाह्य सहित तथा अनन्त पदार्थों को विषय करने वाले श्रुतज्ञान को नमस्कार 'किया गया है।"
जैन - हिन्दी- पूजा-काव्य में सरस्वती पूजन का अतिशय महत्त्व है । यह तीर्थकर की ध्वनि है जिसे गणधरों द्वारा श्रवणकर शब्दाधित किया गया है। इसकी पूजा करने से जन्म-जरा तथा मरण को व्यथा से मुक्ति मिला करती है।
१. तेसि च सरीराणं दव्वसुदस्स वि अचित पूजा सा ।
- वसुनद श्रावकाचार, आचार्य वसुनदि, सम्पादक पं० हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण १६५२, गाथा ४५०, पृष्ठ १३० ।
२.
जन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि, डॉ० प्रेम सागर जैन, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रथम संस्करण १९५३, पृष्ठ ८१ ।
३. श्रुतमपि जिनवर विहितं गणधररचितं द्वयनेक भेदस्थम् ।
अङ्गाग बाह्य भावित मनन्त विषय नमस्यामि ॥
- श्रुतभक्ति, गाथा ४, आचार्य पूज्यपाद, दशभक्त्यादि सग्रह, अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल, साबरकांठा, गुजरात, प्रथम संस्करण वी० नि० स ं० २४८१, पृष्ठ ११८ ।
४. छीरोदधिगंगा विमल तरंगा, सलिल अभगा सुख संगा । भरि कंचन झारी, धार निकारी, तृषा निवारी, हित चंगा ॥ तीर्थकर की धुनि, गणधर ने स ुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञान मई । सो जिनवर वानी, शिव स खदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥ जनम जरा मृत छय करें, हर कुंनय जड़रीति । भवसागर सों ने तिरं, पूजं जिनवच प्रीति ॥
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-श्री सरस्वती पूजा, यानतराय, राजेशनित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र
मेटल वक्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण १९७५, पृष्ठ ३७५ ।