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शुभ संकल्प करता है। इसके द्वारा क्रमशः अष्टद्रव्य का क्षेपण कर अमुकअमुक कर्म त्यागने का संकल्प किया जाता है। इस प्रकार जैन-पूजा-काव्य में भक्ति का अभिप्राय भगवान से किसी प्रकार की सांसारिक मनोकामना पूर्ण करने-कराने की अपेक्षा नहीं की जाती। यहां पूजक अथवा भक्त अपने मिथ्यात्व का सर्वथा त्याग करने हेतु प्रभु के समक्ष शुभ संकल्पशील होता है। साथ ही वह प्रभु-गुणों का चिन्तवन कर तप बनने की भावना का . चार चिन्तवन करता है।
उपर्यकित भक्ति विषयक चर्चा का प्रयोग जैन हिन्दी-पूजा-काव्य में विविध पूजाओं के संदर्भ में हुआ है। यहां उन सभी प्रकार की भक्तियों का कमशः इस प्रकार विवेचन करेंगे फलस्वरूप जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में प्रयुक्त भक्ति का स्वरूप स्पष्ट हो सके। सिद्ध भक्ति
सिद्ध भक्ति पर विचार करने से पूर्व सिद्ध भक्ति के विषय में विश्लेषण करना असंगत न होगा। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र सहित अष्टकर्मकुल से रहित, सम्यक्त्वादि अष्टगुणों से संयुक्त है। नय, संयम, चारित्र, भत, वर्तमान तथा भविष्यतकाल में आत्मस्वभाव में स्थित मोक्ष प्राप्त है, ऐसे जीव वस्तुतः सिद्ध कहलाते हैं। सिद्ध निष्कल निराकार होते हैं। उनमें औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और फार्माण शारीरिक
१. ओ३म् ह्रीं श्री जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्बपामीति
स्वाहा ।' -श्री शांतिनाथ जिनपूजा, वृन्दावन, राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह,
राजेन्द्र मेटिल वर्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण १६७६, पृष्ठ ११० । २. अठविहकम्ममुक्के अठ्ठगुणढ्ढे अणोवमे सिद्ध । अठ्ठमपुढविणिविछे णिळियकज्जे य बंदिमो णिचं ॥ . -सिद्ध भक्ति, गाथा १, दशभक्त्यादि संग्रह, सम्पादक श्री सिद्धसेन गोयलीय, अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल सावर कांठा, गुजरात, प्रथम संस्करण वीर निर्वाण सं० २४८१, पृष्ठ ११३ ।