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( ७० ) परमात्मा अथवा सिब प्रायः निराकार होते हैं। जैन हिन्दी काय्य में सर्वप्रसिद्ध की महिमा का प्रतिपादन परिलक्षित है। भक्त अथवा पूजक की मान्यता है कि उनकी वंदना अथवा भक्ति से परम शुद्धि तथा सम्यक् ज्ञान प्राप्त होता है। केवल ज्ञान प्राप्त होने पर अमित आनंद की अनुभूति हुआ करती है।
जैनधर्म निवृत्ति मूलक है । यहाँ अशुभोपयोग, शुभोपयोग तथा शुखोपयोग मामक तीन श्रेणियों में प्राणी का पुरुषार्थ विभाजित किया गया है। पर-पदार्थ के प्रति ममत्व-भाव रखते हुए पर को कष्ट देने का विचार तज्जन्य व्यवहार कर्ता का अशुभोपयोग कहलाता है। यह जघन्य कोटि का कर्म है। सांसारिक पदार्थों के प्रति ममत्व रखते हुए पर-प्राणियों को किसी प्रकार से हानि न पहुंचाना वस्तुतः शुमोपयोग के अन्तर्गत आता है। किन्तु सांसारिक-पार्यो के प्रति पूर्णतः अनासक्त होफर स्व-पर कल्याणार्थ कर्म विरत होने के लिए तपश्चरण शोल होना वस्तुतः शुद्धोपयोग कहलाता है। जैन भक्ति में भक्त के सम्मुख निवृत्तिभूलक शुखोपयोग का उच्चादर्श विद्यमान रहता है। वह निरर्थक आवागमन से मुक्ति पाने के लिए अरहन्तदेव के दिव्य गुणों का चिन्तवन करता है और पूजापाठ के द्वारा अष्ट द्रव्यों से वस-कर्मो के अयार्थ १. सब इष्ट अभीष्ट विशिष्ट हितू,
उत्कृष्ट वरिष्ट गरिष्ट मितू । शिव तिष्ठत सर्व सहायक हो, सब सिद्ध नमों सुखदायक हों ।। "-श्री सिद्ध पूजा, हीरानंद, ज्ञानपीठ पुष्पाञ्जलि, भारतीय ज्ञानपीठ,
नई दिल्ली, प्रथम संस्करण सन् १९३६, पृष्ठ १२१ । २. 'यत्र तु मोहद्वेषाव प्रशस्तरागश्च ताशुभ इति ।'
--बहद नय चक्र, श्री देव सेनाचार्य माणिकचन्द्र ग्रंथमाला, बम्बई, प्रथम
संस्करण, वि० स० १९७७, पृष्ठ ३०६ । ३. जो जाणदि जिणिदे पेच्छदि सिदे तहेव अणंगारे । जीवेसु साणुकपो उवओगो सो महोतस्स ।।
-बहद् नयचक्र, श्री देवसेनाचार्य, माणिकचन्द्र ग्रंथमाला, बम्बई, प्रथम
सस्करण वि० सं० १९७७, पृष्ठ ३११ । ४. सुविदितपयस्वसुतो संजम तव संजुदो विगदरागो।
समणो सम सुहदुक्यो भणिदो मुडोगओगोत्ति ॥. --प्रवचनसार, गाथा १४, श्री मत्कुन्दकुदाचार्य, श्री सहजानन्द शास्त्रमाला १८५-ए, रणजीतपुरी, सदर, मेरठ, सन् १९७६, पृष्ठ २३ ।
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