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१. श्रीब-कोना अथवा मानोपयोग, वनोपयोग से 'सहित हो बसे
२. मजीव-जो चेतना अथवा बानोपयोग और दर्शनोपयोग से रहित हो,
उसे अजीब कहते हैं। ३. मानव-आत्मा में नवीन कर्मों के प्रवेश को बाबा कहते हैं। ४. बन्ध-आत्मा के प्रदेशों के साप कर्म परमाणमों का नीर-क्षीर के
समान एक क्षेत्रावगाह रूप होकर रहना बन्ध है। ५. संबर-आलब का रुक जाना संबर कहलाता है। ६. निर्जरा-पूर्वबद्ध कर्मों का एक बेश क्षय होना निर्जरा है। ७. मोक्ष-समस्त कर्मों का आत्मा से सदा के लिए पथर हो जाना मोक्ष
कहलाता है। जोब और अजीब ये दो मूल तत्व हैं । इनमें जीव उपादेय है और अजीव छोड़ने योग्य है । जीव, अजीव का ग्रहण क्यों करता है, इसका कारण बतलाने के लिए आस्त्रब तत्व का कपन किया गया है । अजोय का ग्रहण करने से जोष की क्या अवस्था होती है यह बतलाने के लिए बन्धतत्व का निर्देश है। जीव अजीव का सम्बन्ध कैसे छोड़ सकता है, यह समझने के लिए संबर और निर्जर फा कथन है और अजीव का सम्बन्ध छूट जाने पर जीव को क्या अवस्था होती है, यह बतलाने के लिए मोक्ष का वर्णन किया गया है। सात तत्वों में जीव और अजीव ये दो मूल तत्व हैं और शेष पाँच तत्व उन दो तत्वों के संयोग तथा वियोग से होने वाली अवस्था विशेष है।'
विवेच्य काव्य में इतने उपयोगी तत्वों का उल्लेख उन्नीसवीं और बीसवीं शती में उपलब्ध है। उन्नीसवीं शती के कविवर बख्तावररत्न द्वारा प्रणीत 'श्री ऋषभनाथ जिनपूजा' की जयमाला में सप्त तत्वों का प्रयोग हुआ १. उपादेय तथा जीवोऽजीवो हेयतयोदितः ।
हेयस्यास्मिन्नपादान हेतत्वेनास्रवः स्मृतः ।। हेयस्यादान रूपेण बन्धः स परिकीतितः । सवरो निर्जरा हेयहानहेतुतयोदितो । हेय प्रहाण रूपेण मोक्षो जीवस्य दर्शितः ।। -तत्वार्थ सार, प्रथम अधिकार, श्रीमदअमृतचन्द्र सूरि, श्रीगणेश प्रसाद वर्गी ग्रन्थमाला, इमराव बाग, अस्सी, वाराणसी-५, प्रथम संस्करण, सन् १९७०, पृष्ठ ३।