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________________ ( ४५ ) तत्वार्यवन में सोलह-भावनाओं का उल्लेख निम्न प्रकार से हुआ है।' १. वन विधि २. विनय सम्पन्नता ३. शील ४. प्रतों का अतिचार रहित पालन करना ५. मान में सतत उपयोग ६. सतत संवेग शक्ति के अनुसार त्याग ८. शक्ति के अनुसार तप ६. साधु-समाधि १०. वैयावत्य करना अर्थात् जैन सन्तों की सेवा-सुश्रुषा करना ११. अरहन्स-भक्ति १२. आचार्य-भक्ति १३. बहुभुत-भक्ति १४. प्रवचन-भक्ति १५. मावश्यक क्रियाओं को न छोड़ना अर्थात् देवपूजा, गुरु की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान करना। १६. मोक्षमार्ग को प्रभावना और प्रवचन वात्सल्य । अठारहवीं और बीसवीं शती में रचित पूजा-काव्य में ये सभी भावनाएं व्यबहत हैं । उन्नीसवीं शती में रचित पूजाओं में इन भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं हुई है। अठारहवीं शती के खानतराय कृत 'श्री देवपूजा' में प्रमाद निवारण कर सोलह भावनाओं के चिन्तवन का फल अविकारी होना चचित है। १. दर्शन विशुद्धिविनय सम्पन्नता शीलवतेष्वनतीचारोऽभीषण शानोपयोग संवेगो शक्तितस्त्याग तपसो साधु समाधियावृत्य करण मर्हदाचार्य बहुश्रुत प्रचवन भक्तिरावश्य का परिहाणिर्मार्ग प्रभावना प्रवचन वत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य । - तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ६, सूत्र सं० २४, उमास्वामि, श्री अखिल विश्वजन मिशन, अलीगंज, एटा, १९५७ पृष्ठांक ८८ । २. पन्द्रह-भेद प्रमाद निवारी । सोलह भावन फल अविकारी ॥ -श्री देवपूजा, बानतराय, बृहद बिनवाणी संग्रह, सम्पादक-प्रकाशक पन्नालाल बाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, (राज.), सन् १९५६, पृष्ठ ३०३।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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