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( ४० ) व्याख्या हुई है। श्री महावीर स्वामी पूजा' में कविवर कुंजी लाल ने प्रभु द्वारा केवलज्ञान प्राप्त होने पर जन-कल्याणकारी उपदेश सभा-समवशरण की रचना का उल्लेख किया है। जन-हिन्दी-पूजा-काव्य के अतिरिक्त हिन्दी काव्य में समवशरण विषयक उल्लेख कुर्लभ हैं ।
विवेच्य काव्य में सप्तभंगो नामक उपयोगी कथन-शीली की महत्वपूर्ण अभिव्यंजना हुई है। प्रमाण वाक्य से अथवा नयवाक्य से एक ही वस्तु में अविरोध रूप से जो सत्-असत् आदि धर्म को कल्पना की जाती है, उसे सप्तमंगी कहते हैं। कहने के अधिक से अधिक सात भंग अर्थात् तरीके हो सकते हैं। प्रत्येक वस्तु अपने स्वध्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल व स्वभाव की अपेक्षा से सत् है, वही वस्तु परतव्य, परक्षेत्र, परकाल व परभाव की अपेक्षा से असत् है। इस प्रकार सत् असत् या अस्ति, नास्ति दो विपरीत गुण प्रत्येक वस्तु में भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं के कारण होते हैं। अस्ति व नास्ति दो पक्ष हुए। इन अस्ति व नास्ति दोनों पक्षों को एक साथ ले लेने से तीसरा पक्ष अस्ति-नास्ति हुमा । यदि कोई व्यक्ति बस्तु के अस्ति व नास्ति दोनों विरोधी गुणों को एक साथ कहना चाहे तो नहीं कह सकता । इसलिए अध्यक्तव्य चौथा भंग अर्थात्
१. विमल विमल वाणी, श्रीजिनवर बखानी,
सुन भए तत्वज्ञानी ध्यान-आत्म पाया है । सुरपति मनमानी, सुरगण सुखदानी, सुभव्य उर आना, मिथ्यात्व हटाया है ।। समाहिं सब नीके, जीव समवशरण के, निज-निज भाषा माहि, अतिशय दिखानी है। निरअक्षर-अक्षर के, अमरन सों शब्द के, शब्द सों पद बनें, जिन जु बखानी है । --श्री तत्वार्थसूत्र पूजा, भगवानदास, श्री जैन पूजापाठ संग्रह, ६२,
नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ४११ । २. बैसाख सुदी दशमी, ध्यानस्थ बखानी,
चोकर्म नाशि नाथ भए, केवल ज्ञानी। इन्द्रादि समोशर्ण की, रचना वहां ठानी, उपदेश दिया विश्व को जगतारनी बानी ।। -~-श्री महावीर स्वामी पूजा, कुंजीलाल, नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, दि० जैन उदासीन आश्रम, ईसरी बाजार, हजारी बाग, पृष्ठ ४३-४४ । ३. जैनेन्द्र सिदान्त कोश, भाग ४, ९० जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ
प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण १६७३, पृष्ठ ३१५।