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होते हुए स्थित रहते हैं। कोठों के क्षेत्र से यद्यपि जीवों का क्षेत्रफल असंख्यात गुण है, तथापि वे सब जीव जिनदेव के माहात्म्य से एक दूसरे से अस्पृष्ट रहते हैं। जिन भगवान् के माहात्म्य से बालक प्रभृति जीव प्रवेश करते अथवा निकलने में अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर संख्यात योजन चले जाते हैं। इसके अतिरिक्त वहाँ पर जिन भगवान के माहात्म्य से आतंक, रोग, सरण, उत्पत्ति, र, कामबाधा तथा तृष्णा और क्षुधा परक पीड़ाएँ नहीं होती हैं ।"
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समवशरण नामक धर्म
अहंत भगवान को केवलज्ञान प्राप्त होने पर सभा की रचना देवों द्वारा सम्पन्न हुआ करती है। समवशरण का विवेच्य काव्य में अठारहवीं शती से ही प्रयोग हुआ है । कवि खानतराय कृत 'श्री बीस तीर्थंकर पूजा' के जयमाल अंश में भव-जनों के उद्धारार्थ जिनराज को समयशरण-सभा सुशोभित है। उन्नीसवीं शती के कविवर वृन्दावनदास बिरचित 'श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा' के जयमाल अंश में पाप और शोक-विमोचनी धर्मसभा समवशरण का विशद् उल्लेख हुआ है ।" बीसवीं शती के कवि भगवान दास कृत 'श्री तत्वार्थ सूत्र पूजा' में समवशरण सभा के माहात्म्य विषयक विशब्
१. जिणवंदणापयट्टा पल्ला संखेज्जभाग परिमाणा । चंट्ठति विविह जीवा एक्क्के समवसरणेस । कोट्ठाणं खेतादो जीवक्खेत फलं असंखगुणं । होण अट्ठ तिहु जिणमाहप्पेण गच्छति । संखेज्जजोयणाणि बालप्पहूदी पवेणिग्गणे । अंतोमुहुतकाले जिणमाहप्पेण गच्छति । आतंकरोग - मरणुपतीओ वेर कामबाधाओ । तव्हाछह पीडाओ जिणमाहेप्पपण हवंति । -तिलोयपण्णति, यति वृषभाचार्य, अधिकार संख्या ४, गाथा संख्या क्रमशः ६२६, ३०, ३१, ३२, ३३ जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, प्रथम संस्करण वि० सं० १६६६ ।
२. समवशरण शोभित जिनराजा, भवजन तारन तरन जिहाजा । सम्यक् रत्नत्रय निधि दानी, लोकालोक प्रकाशक ज्ञानी ।।
--श्री बीसतीर्थकर पूजा द्यानतराय, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटल वर्क्स, अलीगढ़, सन् १६७६, पृष्ठ ६० ।
३. लहि समवसरण रचना महान, जाके देखत सब पापन्हान । जहं तर अशोक शोभ उतंग, सब शोकवनो दूरं प्रसंग ||
- श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा, वृन्दाबनदास, ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण १६५७, पृष्ठ ३३७ ।