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विवष्यकाव्य में महन्त र छियालीस गुणों के उपरान्त महारावि तमा मतावित कम से धर्म के लक्षणों को प्रातत्य अभिव्यंजना हुई है। विश्व सभी धर्मों में धर्म के लक्षणों को पर्चा हुई है और उन्हें सर्वत्र बश-भागों में हो विमत किया गया है। जैन धर्म के अनुसार धर्म के बश-लक्षणों को निम्न रूप में विभाजित किया गया है। यहां प्रत्येक लक्षण से पूर्व उत्सम शब्द का व्यवहार हुमा है जिसका अर्थ है श्रेष्ठ मर्थात् भावों की उज्ज्वलता।'
१. उत्तम क्षमा २. उत्तम मार्दव ३. उत्तम मार्नच ४. उत्तम सोच ५. उत्तम सत्य ६. उसम संपन
८. उसम त्याग २. उत्तम आविन्य १०. उत्तम ब्रह्मचर्य। क्षमा - भावों में निर्मलता के साथ-साथ सहन-शोलता का होना वस्तुतः उत्तम क्षमा कहलाता है। १. क्षमा मुदवजुते शौचं ससत्यं संयमस्तपः । त्यागोऽकिंचनता ब्रह्म धर्मो दविधः स्मृतः ॥ -तत्वार्थसार, षष्ठाधिकार, श्री अमृतचन्द्र सूरि, श्री गणेश प्रसाद वर्णी प्रन्थमाला, डुमरावबाग, अस्सी, वाराणसी-५, प्रथम संस्करण १९७०,
श्लोकांक १३, पृष्ठ १६३ ।। २. दशलक्षणधर्मः एक अनुचिन्तन, क्षु० शीतलसागर, ए० एम० डी० जैन
धर्म प्रचारिणी संस्था, अवागढ़, उ० प्र०, प्रथम संस्करण १६७८,
पृष्ठ २। ३. क्रोधोत्पत्ति निमित्तानामत्यन्तं सति संभवे ।
आक्रोश ताडनादीनां कालुष्योपरमः क्षमा । ---तत्त्वार्थसार, षष्ठाधिकार, श्री अमृतचन्द्र सूरि, श्रीगणेश प्रसाद वर्णी ग्रन्धमाला, डुमराव बाग, अस्सी, वाराणसी-५, प्रथम संस्करण १६७०, श्लोकांक १४, पृष्ठ १६४।