________________
( ३३ )
"श्री श्रेयांसनाथ जिन पूजा' में प्रभु का छियालीस गुणों से समलंकृत सम्मेद शिखर पर अपने पहुँचने का प्रसंग उल्लिखित है । '
arent शती के सच्चिदानन्द विरचित 'श्री पंचपरमेष्ठी पूजा' में सिद्धजिनेश्वर की चर्चा कर उनमें विद्यमान छियालीस गुणों का उल्लेख किया है।" कविवर हीराचन्द्र द्वारा रचित 'श्री चतुविंशति तोयंकर समुच्चय पूजा' में प्रभु के ज्ञान कल्याणक प्रसंग में छियालीस गुणों की चर्चा अभिव्यक्त है ।" जंनदर्शन के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मों का विनाश करके स्वयं परमात्मा बन जाता है । उस परमात्मा को दो अवस्थाएं हैं
१. शरीर सहित जीवन्मुक्त अवस्था ।
२. शरीर रहित देह-मुक्त अवस्था ।
पहली अवस्था को यहाँ अरहन्त और दूसरी अवस्था को सिद्ध कहा जाता 1 अर्हन्त भी दो प्रकार के होते हैं । यथा -
१. तीर्थंकर
२. सामान्य
विशेष पुष्य सहित अर्हन्त जिनके कि कल्याणक महोत्सव मनाए जाते हैं, तीर्थकर कहलाते हैं और शेष सर्वसामान्य अर्हन्त कहलाते हैं। केवल ज्ञान अर्थात् सर्वस्व युक्त होने के कारण उन्हें केवली भी कहते हैं। इन सभी शुभशक्तियों के छियालीस गुणों की चर्चा विवेच्य काव्य में आद्यन्त हुई है।
१. इस छियालीस गुण सहित ईश, विहरत आए सम्मेद शीश । तहाँ प्रकृति पिचासी छीन कीन, शिव जाए विराजे शर्म लीन || - श्री श्रेयांसनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, वीर पुस्तक भण्डार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर, सं० २०१८, पृष्ठ ८१ ।
२. अनन्त चतुष्टय के धनी छियालीस गुणयुक्त ।
नमहुँ त्रियोग सम्हार के अहं न जीवन्मुक्त ॥
- श्री पंचपरमेष्ठी पूजा, श्री सच्चिदानन्द, नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, दि० जैन उदासीन आश्रम, ईसरी बाजार, हजारी बाग, पृष्ठ ३१ । ३. छियालीस गुण प्राप्त कर, सभा जुद्वादश माँहि ।
भव्य जीव उपदेश कर, पहुंचाये शिव ठाँहि ॥
- श्री चतुविशति तीर्थंकर समुच्चय पूजा, हीराचन्द्र, नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, दि० जैन उदासीन आश्रम, ईसरी बाजार, हजारी बाग, पृष्ठ ७४ ।
४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, क्षु० जिनेन्द्र वर्गों, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण सन् १६७०, पृष्ठ १४० ।