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१०. सजीव होते हुए भी नस और रोमों का समान रहना अर्थात् उनके न और केश बड़ा नहीं करते ।
११. अठारह महाभावा तथा सात सौ शुद्रभावा युक्त दिव्य-ध्वनि अर्थात् केवल ज्ञान हो जाने पर उनको समस्त प्रकार का पूर्ण ज्ञान होता है, कोई भी विद्या, ज्ञान अपरिचित नहीं रहता ।
देवकृत तेरह अतिशयों का क्रम निम्न प्रकार है, यथा
१. तीर्थकदों के महात्म्य से संख्यात योजनों तक असमय में ही पत्रफूल और फलों की वृद्धि से संयुक्त हो जाता है ।
२. कंटक और रेती आदि को दूर करती हुई सुखदायक वायु चलने
लगती है ।
३. जीव पूर्व-बंर को छोड़कर मंत्री- भाव से रहने लगते हैं ।
४. उतनी भूमि दर्पण तल के सदृश स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है ।
५. सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से मेघ कुमार देव सुगन्धित जल की वर्षा करते हैं ।
६. देव - विक्रिया से फलों के भार से नवीभूत शालि और जो आदि सस्य की रचना करते हैं ।
७.
सब जीवों को नित्य आनन्द उत्पन्न होता है ।
८. वायु कुमार देव विक्रिया से शीतल पवन चलता है ।
९. कूप और तालाब आदिक निर्मल जल से पूर्ण हो जाते हैं ।
१०. आकाश ! उल्कापातादि से रहित होकर निर्मल हो जाता है । सम्पूर्ण जीवों को रोग आदिक बाधाएं नहीं होती हैं ।
११.
१२. यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर स्थित और किरणों से उज्ज्वल ऐसे चार fter धर्म चक्रों को देखकर जनों को आश्चर्य होता है ।
तीर्थकरों के चारों दिशाओं में छप्पन सुवर्ण कमल, एक पादपीठ और fear एवं विविध प्रकार के पूजन द्रव्य होते हैं ।"
१३.
१. निलोयपण्णत्ति, यतिवृषभाचार्य, अधिकार संख्या ४, गाथा संख्या ८ से, जीवराज ग्रन्थमाल, शोलापुर प्रथम संस्करण, वि० सं० १६६६ ।
२. तिलोयपण्णत्ति, यति वृषभाचार्य अधिकार संख्या ४, गाथांक ९०७ से ६१४. जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर, प्रतम संस्करण वि० सं० १९६६ ।