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मन के वा मतियों का वर्णन 'तिलोषपत्ति में निम्न प्रकार से उल्लिक्षित है। बचा
१. र रहितता। २, निर्मल शरीरता। ३. बवषमनाराच संहनन अर्थात् उनके शरीर की हरी, हदिव्या.
के गोड़, जोड़ों को कोल बन के समान बुद्ध होती है। ४. समचतुरन सरीर संस्थान अर्थात् उनके शरीर का प्रत्येक अंग और.
उपांग ठीक आकार में सुडौल होता है। ५. दूध के समान धवल रुधिर । ६. अनुपम रूप। ७. नप चम्पक के समान उत्तम गन्ध को धारण करना। ८. १००८ उत्तम लक्षणों का धारण ।
९. अनन्त बल। १०. हित-मित एवं मधुर भाषण ।' केवल ज्ञान के ग्यारह अतिशयों का क्रम निम्न प्रकार है । यथा१. अपने पास से चारों दिशाओं में एक सौ योजन तथा सुभिक्षता
अर्थात् अकाल का अभाव । २. आकारागमन अर्थात् तीर्थकर केवल ज्ञानी पृथ्वी से ऊपर अधर
चलते है। ३. हिंसा का अभाव । ४ भोजन का अभाव, अर्थात् केवल ज्ञान हो जाने पर उनको न भख
लगती है न वे भोजन करते हैं, अनन्त बल के कारण उनका शरीर
दृढ़ बना रहता है। ५. उपसर्ग का अभाव । ६. सबकी ओर मुख करके स्थित होना । ७. छाया रहितता अर्थात् उनके शरीर की छाया नहीं पड़ती है। .. निनिमेष राष्टि।
१. विद्याओं को ईशता। १. तिलोयपण्णत्ति, यतिवृषभाचार्य, अधिकार संख्या ४ गाथा संख्या ८८६ से
८६८, जीवराज ग्रन्पमाला, शोलापुर, प्रथम संस्करण, वि. सं. १६६६ ।