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पुदगल
पुरा कर्म
पुष्प
पुष्पांजलि
पूजन
पूजा
( ३७७ )
पुरस्कार, शय्या, चर्या, बध बन्ध, निवधा, स्त्री इन बाइस उपगों को सहन करना ही परीवह कहा गया है ।
चलन-मिलन स्वभाव ही पुद्गल है, स्पर्श, रस, गंध तथा वर्ण ये पुद्गल के लक्षण कहे गए हैं, यह जीव को शरीर, इन्द्रियों, वचन तथा श्वासोच्छवास प्रदान करता है ।
पीठ के चारों कोनों पर जल से भरे कलशों को स्थापित करना |
अष्ट द्रव्यों में से चौथा द्रव्य, चंदन चचित अक्षत भी पुष्प की जगह काम में आते हैं ।
विसर्जन के बाद पुष्पों की अंजलि का क्षेपण, दिगम्बरो में पुष्प के स्थान पर चंदन से रंगे बातों की अंजलि अर्पित करने की परम्परा है ।
दे, पूजा, श्रावक का पाँचवा कर्तव्य, बर्हस्प्रतिमा का अभिषेक, उसको द्रव्य पूजा-अर्चा, स्तोत्र वाचन, गीतनृत्य आदि के साथ भक्ति ।
पूज्य पुरुषों के सम्मुख जाने पर, या उनके अभाव में उनकी प्रतिकृति के सम्मुख उनकी अर्चना या उनका गुण-स्मरण, इसके चार भेद हैं- सदार्थन, चतुर्मुख, कल्पद्रम, अष्टान्हिक अन्य रीति से इसके छह भेद हैं- १. नाम पूजा अरिहंतादि का नाम लेकर द्रव्य चढ़ना; २. स्थापना पूजा-आकारवान् वस्तुओं में अरिहंतादि के गुणों को आरोपित कर पूजा करना, ३. द्रव्यपूजा - अरिहंतादि की माठ द्रव्यों से विधिविहित पूजा करना, ४ क्षेत्र - पूजा - जिनेन्द्र भगवान् की जम्म, निष्क्रमण, कैवल्य, तीर्थ, निर्वाण आदि भूमियों की पूजा करना ५. कालपूजा -- उक्त दिनों में पूजा करना, नवींश्वर पर्व या अन्य पर्व- दिनों में पूजा करना, ६. माव- पूजा - मन से अरिहंतादि के गुणों का अनुचिन्तन करना, निश्चयपूजा-- पूज्यपूचक मैं बन्दर न रहे इस तरह पूजा करना, इस स्वानुभूति के साथ पूजा करना कि 'जो परमात्मा है, वहीं मैं हूँ ।"