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बती के माता पमनावि त कुलहुन पानाच बि वा अपमा नामक महत्वपूर्ण कृतियां हैं। पन्द्रहवीं सती के भाचार्य श्रुतसागर त सिब बकाष्टक पूजा तवा श्रुतस्कन्ध पूजा उल्लेखनीय पूजाकाव्य है।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य का मूलाधार आचार्य पमणि विरचित उपासनास्मक कृतियों में विद्यमान है। यहाँ यह काव्यरूप व्यवस्थित रूप से अठारहवीं शती में उपलब्ध होता है । अठारहवीं शती के समर्ष कविर्मनीची पानतराब विरचित ग्यारह पूजा काव्य प्राप्त है। उन्नीसवीं शती में अनेक जन-हिन्दी कवियों द्वारा यह समर्थ काव्य रूप उपासनात्मक अभिव्यंजना के लिए गृहीत हुआ है। इस दृष्टि से कषिवर रामचन्द्र कृत सत्ताईस पूजाएं, कविवर वृन्दावन कुत पांच पूजा काट्य, श्री मनरंगलाल कृत छबीस पूणा-काव्यफुतियों, श्री बख्तावररस्न रचित पच्चीस पूजाएं, श्री कमलनयन तथा श्री मल्लजी कृत एक-एक पूजाकाय विभिन्न भाराय शक्तियों पर आधारित रचे गये हैं।
बीसवीं शती में पूजाकाध्य प्रचुर परिमाण में रखा गया है। कविवर रविमल कृत तीस चौबीसी पूजा, श्री सेवक कृत तीन पूजाएँ, श्री भविलाल जू कृत सिरपूजा, श्री जिनेश्वरदास कृत तीन, श्री दौलतराम कृत दो, श्री
जोलाल विरचित तीन, श्री हेमराज कृत गुरुपूजा, श्री जवाहरलाल कृत वो, श्री आशाराम कृत श्री सोनागिर सिद्ध क्षेत्रपूजा, श्री हीराचन्द्र कृत दो, श्री मेम जी रचित अकृत्रिम चैत्यालय पूजा, श्री रघुतत कृत दो, बी वीपचन्द्र कृत श्री बाहुबली पूजा, श्री पूरणमल कृत मी चांदनपुर महावीर स्वामी पूजा, श्री भगवानबास कृत श्री तत्त्वार्थ सूत्र पूजा, श्री मुन्नालाल कृत भी खण्डगिरि क्षेत्र पूजा, श्री सच्चिदानंद कृत श्री पंचपरमेष्ठी पूजा, श्री युगलकिशोर जैन 'युगल' कृत देवशारत्र गुरपूजा और श्री राजमल पर्वया कृत श्री पंचपरमेष्ठी पूजा अधिक उल्लेखनीय हैं।
पूजा एक समर्थ काव्यरूप है। यह काव्यरूप संस्कृत, प्राकृत तथा अपनश से होता हुआ हिन्दी में अवतरित हुआ है। मठारहवीं शती से पूर्व संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषा में प्रणीत पूजाकाव्य का प्रयोग भक्त्यात्मक समुदाय और समाज में होता रहा है। अठारहवीं शती से जन हिन्दी काव्य में यह काव्यरूप व्यवस्थित रूप से रचा गया और यह परम्परा बीसवीं शती तक, माज तक निरन्तर चलती आ रही है।
इस काव्यरूप के माध्यम से जहाँ एक मोर कल्याणकारी धानिक अमि