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समवशरण'
( २३३ )
जिनेन्द्रदेव की आध्यात्मिक समा का प्रतीक
आत्मा का प्रतीक
हंस
उपर्य किस विवेचन से जैन- हिन्दी- पूजा-काव्य में व्यवहृत प्रतीक योजना का शताब्दी कम से परिचय सहज में हो जाता है । अठारहवीं शती के पूजाकाव्य में प्रतीकात्मक शब्दावलि का यत्र तत्र व्यवहार हुआ है जिनके प्रयोग से काव्याभिव्यक्ति में उत्कर्ष के परिवर्शन होते हैं ।
उन्नीसवीं शती में बिरचित जैन हिन्दी - पूजा-काव्य में बहुप्रचलित प्रतीक प्रयोग उल्लेखनीय है जिससे पूजाकाव्य का यथेच्छ प्रवर्तन परिलक्षित होता है ।
बीसवीं शती में पूजा कृतियों में परम्परानुमोदित प्रतीकों के व्यवहार के साथ अनेक नवीन प्रतीकात्मक शब्दावलि के दर्शन होते हैं। प्रतीकों का सफल प्रयोग इस काल के पूजा कवियों की काव्यकलात्मक क्षमता का परिचायक है ।
१. तब ही हरि आशा शिर चढ़ाय । रचि समवशरण वर धमद राय ||
- श्री पावापुर सिद्ध क्षेत्र पूजा, दौलतराम, वही, पृष्ठ ११४ ।
२. दशधर्म बहे शुभ हंस तरा ।
प्रणमामि सूत्र जिनवाणि करा ॥
- श्री तत्वार्थ सूत्रपूजा, भगवानदास, वही, पृष्ठ ४१२।