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जिन शास्त्रों में महापुरुषों के परित्र द्वारा पुष्प-पाप के फल का वर्णन होता है और अन्त में वीतरागता को हितकर निरूपित किया जाता है, न शास्त्रों को प्रथमानुयोग कहते हैं।' करणानुयोग के शास्त्रों में गुणल्यान, मार्णणास्थान आदि रूप से जीव का वर्णन होता है, इसमें गणित का प्राधान्य है, क्योंकि गणना और नाम का यहाँ व्यापक वर्णन होता है। गृहस्थ भोर मुनियों के माधरण-नियमों का वर्णन चरणानुयोग के शास्त्रों में होता है। इनमें सुभाषित, नीति-शास्त्रों की पति मुख्य है, जीवों को पाप से मुक्त कर धर्म में प्रवृत्त करना इनका मूल प्रयोजन है । इनमें प्रायः म्यबहारभय की मुख्यता से कयन किया जाता है। बाद्याचार का समस्त विधान परमानुयोग का मूल वयं विषय है।' प्रम्यानुयोग में षट्दव्य, सप्ततत्व और स्व-परमेव विज्ञान का वर्णन होता है। इस अनुयोग का प्रयोजन
१. प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यं ।
बोधिसमाधिनिधानं बोधाति बोधः समीचीनः ।। -रत्नकरण्ड श्रावकाचार--स्वामी समंतभद्राचार्य, वीरसेवा मंदिर, सस्ती ग्रन्थमाला, दरियागंज, देहली, प्रथम संस्करण, वीर निर्वाण सं० २४७६,
श्लोक संख्या ४३ । २. लोकालोकविभक्तेयुगपरिवृतेश्चतुर्गतीनां च ।
आदर्शमित्र तथा मतिरबति करणानुयोगं च ॥
-रत्नकरण्ड श्रावकाचार- स्वामी समन्तभद्राचार्य, श्लोक संख्या ४४ । ३. गृहमेध्यनगाराणं चारित्रोत्पतिवृद्धिरक्षाङ्गम् ।
चरणानुयोग समयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति ॥ -रत्नकरण्ड श्रावकाचार-स्वामी समन्तभद्र, वीरसेवा मंदिर, सस्ती. ग्रंथमाला, दरियागंज, देहली, प्रथम संस्करण, वी. नि० सं० २४७६, श्लोक संख्या ४५। जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आया । तच्चत्था इदि मणिदा णाणा गुणपज्जएहिं संजुता ॥ नियमसार, आचार्य कुदकुद, जीवअधिकार, गाया संख्या ६, श्री दिगम्बर. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र), द्वितीय आवृति वीर
सं० २४६२, पृष्ठ २२। ५. जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षस्तत्त्वम् ।
-तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र ४, उमास्वामि, श्री अखिल विश्व जैन मिशन, अलीगज-एटा,सन् १९५७, पृष्ठ ३ ।