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उद्भव तथा विकास
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जैन-धर्म के अनुसार मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल नामक मन के पाँच मे विख्यात हैं । इन्हें स्वार्थ और परार्थ नामक दो भेदों में विभाजित किया गया है। मति, अवधि, मन:पर्यय और केवल ज्ञान स्वार्थसिद्ध हैं, जबकि परार्थज्ञान केवल एक है और वह भी भुत । भुत का प्रयोग शास्त्र के अर्थ में होता है। भारतीय धर्म-साधना में वैदिक, बौस और जैन धर्म समाहित हैं। वैदिक-शास्त्रों को वेद, बौद्ध-शास्त्रों को पिटक तथा जैनशास्त्रों को आगम कहा जाता है ।"
यथा
आगमयति हिताहितं बोधयति इति आगमः अर्थात् जो हित और अहित का ज्ञान कराते हैं, वे आगम हैं। शुद्ध-निष्पाप आत्मा में आगम विद्या का संचार होता है। इसलिए केवल ज्ञान प्राप्त तीर्थकरों की वाणी को ही भागम कहा गया है । आगम का मौलिक अभिप्राय प्राचीनतर प्राग्वैदिक काल से आती हुई वैतिर धार्मिक या सांस्कृतिक परम्परा से है । "
जैनशास्त्रों का वर्गीकरण चार अनुयोगों के रूप में किया गया है',
१. प्रथमानुयोग २. करणानुयोग ३. चरणानुयोग ४. द्रव्यानुयोग
१. दसवें आलियं, सम्पादक - मुनि नथमल जैन, विश्वभारती, लाडनू ं, राजस्थान, द्वितीय संस्करण १६७४ ई०, भूमिका लेखक आचार्य श्री तुलसी, पृष्ठ १५ ।
२. वैदिक संस्कृति के तत्त्व - डा० मंगलदेव शास्त्री, पृष्ठ ७; भारत में संस्कृति एवं धर्म- डा० एम० एल० शर्मा, रामा पब्लिशिंग हाउस, बड़ौत (मेरठ) प्रथम संस्करण १९६६, पृष्ठ ८३ ।
३. रत्नकरण्ड श्रावकाचार - स्वामी समन्तभद्राचार्य, वीर सेवा मंदिर, सस्तों ग्रन्थमाला, दरियागंज, दिल्ली, प्रथम संस्करण, वी० नि० सं० २४७६, पृष्ठ १३५ से १३७ तक ।