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________________ ( २२६ ) काली सति के कारण और रसात्मक अभिव्यंजना के लिए यह अपरता जन-हिन्दी-जा-काव्य में बीसवीं शती के कपि जवाहरलाल को भी सम्मेशितरपूजा' नामक पूजा रचना में मोतियवाम वृत का प्रयोग भक्त्या. सामाणिजना में शांतरसो के लिए हमा है।' बाणिक छन्दों में समवृत का एक मेव पोखता है। मैन-हिन्दीपूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती के कविवर वृन्दावन द्वारा रचित 'श्री शांतिमाव जिनपूजा'- नामक पूजा रचना में इस वृत का शान्त रस के प्रकरण में प्रयोग हुमा है।' सम्बिणी मग्विणी वर्षिक छन्दों में समवृत का एक भेद है । जैन-हिन्दी-पूजा १. टरें गति बंदत नकं त्रियंच। कबहुं दुखको नहिं पा रंच । यही शिव की जग में है द्वार । बरे नर बंदी कहत 'जवार' -श्री सम्मेद शिखर पूजा, जवाहरलाल, संगृहीतग्रंथ-बृह पिनवाणी संग्रह, सम्पा. व रचयिता-५० पन्नालाल वाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, सितम्बर १६५६, पृष्ठ ४६५। २. हिन्दी साहित्य कोश, प्रपम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, ज्ञान मण्डल लिमिटेड, बनारस, संस्करण सं० २०१५, पृष्ठ ६१४ । शान्ति शान्ति गुन मंग्तेि सदा, जाहि ध्यावत सुपंडिते सदा । मैं तिन्हें भगत मंडिते सदा, पूजिहों कलुष-खडितें सदा ।। मोक्ष हेत तुम ही दयाल हो, हे जिनेश गुन-रन-माल हो। में अब सुगुन दाम ही घरों, व्यावते तुरित मुक्ति तीयवरो॥ --श्री शांतिनाथ जिनपूजा, वृन्दावन, संगृहीत ग्रंथ-राजेश नित्य पूजा .पाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्स, हरिनगर, अलीगढ़, सस्करण १९७६, पृष्ठ ११४। ४. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाम, सम्पा. धीरेन्द्र वर्मा मावि, मान मण्डल लिमिटेड, बनारस, संस्करण सं० २०१५, पृष्ठ ८७२।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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